SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वाक्यरचना बोध क्रियते क; स्वक्रियया निष्पाद्यते यत् तत् कर्म-कर्ता अपनी क्रिया के द्वारा जो वस्तु निष्पन्न करता है या जिस वस्तु पर क्रिया के व्यापार का फल पडता है उसे कर्म कहते हैं। कर्म की यह विस्तृत परिभाषा है। संक्षेप में 'यत् क्रियते तत् कर्म' अर्थात् कर्ता जो कुछ करता है वह कर्म है। कर्म के तीन भेद किये जाते हैं-(१) निर्वयं (२) विकार्य (३) प्राप्य । (१) निर्वयं-इसका अर्थ है उत्पाद्य । उत्पाद्य वस्तुएं दो श्रेणी की होती है। एक तो वे जो जन्म से उत्पन्न हो, जैसे-माता सुतं प्रसूते । दूसरी वे हैं जो अविद्यमान हों और उनका निर्माण किया जाये, जैसे- तन्तुवायः कटं करोति । (२) विकार्य-वर्तमान वस्तु को अवस्थान्तरित करने से अथवा कर्ता की क्रिया से वस्तु के स्वभाव-परिवर्तन होने से जो विकार होता है उस कर्म को 'विकार्य' कहते हैं । जैसे-स्वर्णकारः काञ्चनं कुण्डलीकुरुते । कृशानुः काष्ठं दहति । (३) प्राप्य-जिसमें क्रिया से कुछ भी विशेषता न होती हो उसे प्राप्य कहते हैं । जैसे-चक्षुष्मान् आदित्यं पश्यति । इसमें न तो कुछ भी उत्पन्न होता है और न विकृत। कर्मकारक में द्वितीया विभक्ति होती है और शब्दों के योग में भी द्वितीया विभक्ति होती है। कारक से जो विभक्ति होती है उसे कारक विभक्ति कहते हैं, शब्दों के योग में होने वाली विभक्ति को उपपदविभक्ति कहते हैं। दोनों में कारक विभक्ति बलवान् होती है। प्रत्येक कारक के लिए यह नियम है। नियम ९८-(कर्तुाप्यं कर्म २।४।३)-इसमें कर्ता के व्याप्य को ही कर्म कहा है । परन्तु व्याप्य शब्द का अर्थ विशाल है। इसमें हम उत्पाद्य, विकार्य और प्राप्य इन सबका समावेश कर सकते हैं। नियम ६६-(गौणात् २।४।४६)-कर्तृवाच्य में कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है । जैसे—स पुस्तकं पठति ।। नियम १०० -- (क्रियाविशेषणात् २।४।४८)-क्रियाविशेषण में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-स सत्वरं धावति । नियम १०१-(निकषासमयाहाधिगन्तरान्तरेणातियेतेनैः २।।४६) निकषा, समया, हा, धिग, अन्तरा, अन्तरेण, अति, येन, तेन इत्यादि शब्दों के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे-निकषा पर्वतं नदी। समया पर्वतं वनम् । हा देवदत्तं वर्धते व्याधिः । धिग् जाल्मम् । अन्तरा निषधं नीलवन्तं च मेरुः । ज्ञानमन्तरेण न सुखम् । अतिकुरून् पाण्डुसेना। येन तेन वा पश्चिमां गतः। -
SR No.032395
Book TitleVakya Rachna Bodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya, Shreechand Muni, Vimal Kuni
PublisherJain Vishva Bharti
Publication Year1990
Total Pages646
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy