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________________ ६७ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख जैन पाण्डुलिपियों के प्रकाशन में-श्री गणेश वर्णी दि. जैन (शोध-) संस्थान का योगदान ___ इस प्रसंग में मुझे यह कहते हुए विशेष प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है कि गणेश वर्णी दिगम्बर जैन संस्थान (नरिया, वाराणसी) भी पाण्डुलिपियों के उद्धार में पीछे नहीं रहा। उसके संस्थापक-निदेशक श्रद्धेय पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री को कहीं से बुन्देली-भाषा के गौरव-कवि पं. देवीदास की कुछ हस्तलिखित पाण्डुलिपियों का एक गुटका उपलब्ध हुआ था। उनके तत्काल प्रकाशन की उनकी कितनी तीव्र इच्छा थी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जनवरी १६७७ की कोरमकोर शीत-ऋतु में उसे लेकर स्वयं ही वे आरा (बिहार) पधारे और डॉ. विद्यावती को उन सभी पाण्डुलिपियों के सम्पादन एवं मूल्यांकन हेतु कृपापूर्ण आदेश दिया। विषय-वर्गीकरण की दृष्टि से वे समस्त पाण्डुलिपियाँ नौ खण्डों में विभक्त की गई और ३८८ पृष्ठों में "देवीदास-विलास" के नाम से सितम्बर १६६४ में उक्त वर्णी-संस्थान से प्रकाशित हुई। उसके सम्पादन-प्रकाशन में भले ही कुछ विलम्ब हो गया, किन्तु विद्वानों ने उसे उच्च कोटि का प्रकाशन घोषित कर बड़ा सन्तोष व्यक्त किया। महाकवि देवीदास की पाण्डुलिपियों का सम्पादन तो उक्त ग्रन्थ में समाहित हो गया किन्तु उसके विस्तृत तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक ६०६ पृष्ठीय शोध-ग्रन्थ पर डॉ. विद्यावती को बी.आर.अम्बेडकर बिहार विश्व विद्यालय, मुजफ्फरपुर द्वारा सन् १९६८ में डी.लिट् की उपाधि से भी सम्मानित किया गया। यह ग्रन्थ अद्यावधि अप्रकाशित है। वस्तुतः पूज्य पण्डित जी अत्यन्त चिन्तित रहा करते थे कि उक्त महाकवि देवीदास के साहित्य की अनेक कारणों से उपेक्षा हुई है। इसी कारण उनकी चिन्ता को दूर करने तथा उनकी भावनाओं का आदर करते हुए उच्चस्तरीय शोध का भी उसे विषय बनाया गया और उसमें उक्त शानदार सफलता भी मिली। यदि सहृदय पाठक-गण बुन्देली-भाषा की सरलता देखना चाहते हों, अध्यात्म की गहराई नापना चाहते हों, बुन्देली-भाषा की मिठास का रसास्वादन करना चाहते हों, यदि उसकी मृदुल छवि देखना चाहते हों, यदि दार्शनिक चिन्तनधारा की गम्भीरता में डुबकी लगाना चाहते हों, यदि मनोवैज्ञानिक चित्र-विचित्र रंगों के रंग में अपने चरित्र का पता लगाना चाहते हों, यदि जैन-रहस्यवाद की गरिमा देखना चाहते हों, विविध प्रकार की छन्दावली या लाक्षणिकताओं के दर्शन करना चाहते हों, तो प्रत्येक स्वाध्यायी और शोधार्थी के लिये उक्त देवीदास-विलास का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। महाकवि देवीदास की स्थिति उसी प्रकार की थी, जिस प्रकार कि सन्त कबीर की। कबीर ताना-बाना बुनकर अपना भरण-पोषण करते थे। पं.देवीदास जी भी उसी प्रकार बंजी-भौंरी ६४ करके अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण किया करते थे और रात्रि में अपना लेखन-कार्य किया करते थे। ६४. सिर एवं कंधों पर व्यापारिक सामग्रियों को लादकर देहातों-देहातों में पैदल चलकर बेचने को बुदेली भाषा में 'बंजी-भौरी' कहा जाता है।
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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