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________________ ६४ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख सुमतिदेव कृत सुमति-सप्तक, सिद्धसेनकृत सन्मति-प्रकरण पर अपराजित सूरि कृत कोई टीका-ग्रन्थ, आचार्य विद्यानन्दिकृत विद्यानन्द-महोदय (तर्कशास्त्र पर लिखित कोई विस्तृत ग्रन्थ, २३. अमरकीर्ति-(अपभ्रंश-षटकर्मोपदेश के लेखक) कृत-महावीरचरित, यशोधरचरित धर्मचरित-टिप्पण, सुभाषित-रत्ननीति, धर्मोपदेश-चूड़ामणि एवं ध्यान-प्रदीप, इनके अतिरिक्त भी संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी एवं कन्नड़ आदि की पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों में उल्लिखित अनेक ग्रन्थों की सूची इतनी विस्तृत है कि स्थानाभाव के कारण सभी के उल्लेख यहाँ करना सम्भव नहीं। इनमें से कुछ उपलब्ध हैं एवं कुछ अनुपलब्ध । कौन करेगा उक्त अनुपलब्ध गौरव-ग्रन्थों की खोज ? भारत का सांस्कृतिक एवं साहित्यिक इतिहास तब तक अधूरा रहेगा, जब तक उन ग्रन्थकारों एवं उनकी पाण्डुलिपियों की खोज कर उनका बहुआयामी मूल्यांकन नहीं कर लिया जाता। भारतीय वाड्मय का ऐतिहासिक मूल्य का एक गौरव ग्रन्थ-कातन्त्र व्याकरण और देश-विदेश में बिखरी उसकी विविध पाण्डुलिपियाँ प्राच्य भारतीय व्याकरण-विद्या के गौरव-ग्रन्थ के रूप में माने जाने वाले कातन्त्र-व्याकरण का प्रकाशन यद्यपि १६वीं सदी के प्रथम चरण में ही हो चुका था तथा जैन एवं जैनेत्तर पाठशालाओं में उसके अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था भी थी किन्तु धीरे-धीरे किन्हीं अदृष्ट कारणों से वह परम्परा बन्द हो गई और परवर्ती पाणिनि-व्याकरण ने उसका स्थान ले लिया। कातन्त्र-व्याकरण - किन्तु कातन्त्र व्याकरण की अपनी विशेष गरिमा है। इसकी प्राचीनता तथा विशेषताओं का मूल्यांकन करते हुए सुप्रसिद्ध व्याकरण शास्त्री डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री ने स्पष्ट कहा है कि-"कातन्त्र-व्याकरण" पाणिनि की परम्परा पर आश्रित न होकर उनसे पूर्ववर्ती-"कलाप-व्याकरण" पर आश्रित था। पाणिनि और कात्यायन दोनों ने ही कलापी और उनकी शिष्य-परम्परा का उल्लेख किया है। आगे वे पुनः कहते हैं कि "भाष्य में भी महावार्तिक के साथ" कालापक शब्द आया है और उसके बाद तुरन्त ही पाणिनीय-शास्त्र की चर्चा है। इससे अनुमान होता है कि पाणिनि के पूर्व "कलापी" की कोई व्याकरण-शाखा थी। कातन्त्र-व्याकरण उसी पर आश्रित है ८७ । कातन्त्र व्याकरण मयूरपिच्छी-धारी शर्ववर्म द्वारा विरचित है। विष्णु-पुराण (३/८) के अनुसार-"दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छिधरो" के कथन से स्पष्ट है कि शर्ववर्म दिगम्बर मुनि थे, जिसका पुरजोर समर्थन कातन्त्र-व्याकरण के महारथी विद्वान् डॉ. जानकीप्रसाद द्विवेदी ८८ ने भी किया है। ८७. पतंजलिकालीन भारत (पटना १६६३) पृ. ६६-६७ ८८. कातन्त्र व्याकरण-प्रथम भाग की भूमिका
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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