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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख शप्त तो तेयसु तुम्हारी, रोजु ल्ल्य सात, हस्त आठ, नोय उनमें, तुरा दोस्ती मित्रता। संसार में एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ, तथा दस आदि सद्गुणों से युक्त वे ही गुणी, कुशल, मध्यस्थ अथवा साधुगण कहलाते हैं, जिनका आपके प्रति मैत्री-भाव अथवा अनुराग हो। (३) - आनिमानि = हमारी प्रार्थना, खतमथु = खिदमत, सेवा, भक्ति, खुदा = हे खुदा, हे स्वामिन्, विस्तवि = ध्यान दीजिए, किंचि किंचित्मात्र, विवीनि विनय, रोज, दिल, रात्रि, जाम याम, मुरा येकुय एक, दिल, हृदय, विनसनि = स्थित है। __ हे स्वामिन्, हमारे अल्पमात्रिक भक्ति-भाव की ओर भी जरा ध्यान दीजिए और उसे अर्थात् मेरी व्यथा-कथा को सुनिए। माह, दिवस, रात्रि अथवा (कम से कम) एक क्षण मात्र के लिए भी तो हमारे हृदय में स्थित होइये (निवास कीजिए)। (४)-नेसि = नेस्त, नहीं, विहेलिय छोड़कर, अवरि बीजे = अन्य दूसरे से, मोरइ = मेरा मादर माता, कामु = काम, पिदर आम = आम सभी कुछ, ब्रादर भाई, बुध = हे जानकार (सर्वज्ञ) __ हे सर्वज्ञ प्रभु, तू ही हमारी माता है और तू ही पिता और भाई, तुझे छोड़कर हमारा और किसी से भी कोई काम नहीं। तो मेरा, दिलु तूंही पिता,
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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