SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 70
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख एवं हिन्दी अनुवाद उदाहरणार्थ यहाँ प्रस्तुत है In all the circle of the Earth No fairer land you will find. Than that where rich sweet Kannada voices the people's mind. अर्थात् समस्त भूमण्डल में, ऐसा सुन्दरतर भूखण्ड आपको कहीं भी दिखाई नहीं देगा, जहाँ लोक-मानस द्वारा सहज स्वाभाविक रूप में निःसृत समृद्ध कन्नड़ के मधुर-संगीत के समकक्ष, हृदयावर्जक संगीत सुनाई देता हो। (१) The people of that land are skilled To speak in rhythmic tone. And quick to grasp a poet's thought So kindered to their own. उस कर्नाटक-भूमि के मूल निवासी जन, स्वर एवं लयबद्ध संगीतात्मक ध्वनियों में ऐसे जन्म-जात प्रतिभा सम्पन्न होते हैं, कि वे किसी भी कवि की अन्तरंग भाव-भूमि को तत्काल ही आत्मसात् कर लेने में सक्षम हैं और स्वयं भी वे बड़े संवेदनशील रहते हैं। (२) Not students only, but the folk untutored in the schools By instinct use and understand The strict poetic rules. (1/36-38) अर्थात् उस कर्नाटक के केवल विद्यार्थीगण ही नहीं, अपितु सर्वथा-अशिक्षित ग्राम्यजन भी, जिन्होंने कि विद्यालयों में कभी भी विधिवत् शिक्षा ग्रहण नहीं की, वे भी, अपनी सहज स्वाभाविक प्रतिभा के बल पर काव्य-विधा के परम्परागत नियमों को समझते हैं, तथा अपने लोक-संगीत में स्वयं उनका प्रयोग भी कड़ाई के साथ किया करते हैं। (३) प्रश्नोत्तररत्नमालिका की पाण्डुलिपि दुर्भाग्य से भारत में लुप्त हो चुकी थी। संयोग से सन् १९७१-१६७२ में उसकी तिब्बती-लिपि एवं तिब्बती-अनुवाद के साथ एक पाण्डुलिपि तिब्बत के एक ग्रन्थागार में उपलब्ध हुई थी, जिसका आचार्य श्री विद्यानन्दजी के प्रयत्नों से हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। उदाहरणार्थ उसका एक मार्मिक पद्य यहाँ उद्धृत है " किं शोच्यं कार्पण्यं सति विभवे किं प्रशस्यमौदार्यम् । तनुरवित्तस्य तथा प्रभविष्णोर्यत्सहिष्णुत्वम् ।। २५ ।। अर्थात् - प्रश्न - वैभव-सम्पत्ति के होते हुए भी शोचनीय विषय क्या है ? उत्तर - कृपणता अर्थात् वैभव-सम्पत्ति का न तो स्वयं उपभोग करना, और न ही उसे सुपात्रों को दान में देना।
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy