SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख जैसी कि प्राचीन परम्परा मिलती है, आध्यात्मिक सन्त, आचार्य-लेखकगण लोक-ख्याति से प्रायः दूर ही रहते रहे । यही कारण है कि उनके लोकार्पित विशिष्ट ग्रन्थों में उनके आत्मवृत्तों के उल्लिखित न होने के कारण उनके जीवनवृत्त प्रायः अज्ञात अथवा विवादास्पद जैसे ही बने रहे। इस कोटि में आचार्य गुणधर, पुष्पदन्त, भूतबलि एवं कुन्दकुन्द ही नहीं, आचार्य शिवार्य, कार्तिकेय और यहाँ तक कि महाकवि भास, शूद्रक एवं कालिदास प्रभृति की भी दीर्घकाल तक यही स्थिति बनी रही। इन सभी के निर्विवाद प्रामाणिक जीवनवृत्तों से हम सदा-सदा के लिये अनभिज्ञ ही रह जाते, यदि शोध-प्रज्ञों ने उनकी खोज के लिये आधुनिक वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग न किये होते और प्राच्य-विद्या-जगत् को प्राच्य-शिलालेखों एवं पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों तथा अन्य कसौटियों के माध्यम से उनके इतिवृत्तों की जानकारी न दी होती। भले ही वे अधिकांशतः सर्वसम्मत न बन सके। मध्यकालीन आचार्य-लेखकों ने इतिहास के उक्त उपेक्षित तथ्य का सम्भवतः गम्भीरता से अनुभव किया था। यही कारण है कि उन्होंने अपने ग्रन्थों के आदि एवं अन्त में प्रशस्तियाँ लिखकर उनमें आत्मपरिचय, ग्रन्थ-लेखन-काल तथा ग्रन्थ-लेखन-स्थल आदि के उल्लेख किये हैं। ग्रन्थान्त में प्रतिलिपिकारों ने भी अपनी पुष्पिकाओं में ग्रन्थ का प्रतिलिपिकाल और प्रतिलिपि-स्थलों के उल्लेख किये हैं। इनके अतिरिक्त भी प्रशस्तियों में लेखकों तथा प्रतिलिपिकारों ने समकालीन राजाओं, नगर-श्रेष्ठियों आश्रयदाताओं तथा भट्टारक-गुरु-परम्परा के साथ-साथ पूर्ववर्ती साहित्य एवं साहित्यकारों के उल्लेख भी किये हैं, जो विविध पक्षीय इतिहास की विश्रृंखलित कड़ियों को जोड़ने में विशेष सहायक हैं। उदाहरणार्थ कुछ तथ्य यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं एक शिलालेखीय प्रशस्ति के अनुसार गंगराज अविनीत ने (वि. सं. ५२३) आचार्य देवनन्दि-पूज्यपाद (वि.सं. ५२१-५८१) को पूर्ण सम्मान ही नहीं दिया, बल्कि उनके सान्निध्य में अपने राजकुमार दुर्विनीत के लिए शिक्षा भी प्रदान कराई। गुरु की प्रेरणा से इस राजकुमार दुर्विनीत ने भी तलकाड (कर्नाटक) में सर्व-सुविधा-सम्पन्न एक जैन-विद्यापीठ की स्थापना की, जिसमें आचार्य, मुनि आदि ने बैठकर जैन-दर्शन, साहित्य एवं आचारादि के साथ-साथ छन्द, व्याकरण, आयुर्वेद, राजनीति एवं लक्षण-ग्रन्थों की रचनाएँ की थीं। इसमें लेखन -कला की सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक शिक्षा भी प्रदान की जाती थी ५४ | (२) एक अन्य प्रशस्ति के अनुसार राष्ट्रकूट-वंशी सम्राट अमोघवर्ष (६वीं सदी), जिसे कि जैन-समाज अपना वीर-विक्रमादित्य मानता है, और अरबी इतिहासकार सुलेमान ने भी जिसे अपने समय के विश्व के ५४.. अतीत के पृष्ठों से (लेखक डॉ.राजाराम जैन) पृ. ४, ६.
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy