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________________ 33 जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख उपलब्ध मल्लिषेणप्रशस्ति में एक रोचक घटना की सूचना मिलती है। उसके अनुसार अकलंकदेव अपने सम्मान की प्राप्ति के उपलक्ष्य में राजा दन्तिदुर्ग से कहते हैं ४६ - राजन् ! साहसतुंग सन्ति बहवो श्वेतातपत्राः नृपाः किन्तु त्वत्सदृशरणे विजयिनसत्यानोन्नता दुर्लभाः । तद् वत् सन्ति बुधा न सन्ति कवयो वादीश्वरा वाग्मिनो, नाना-शास्त्र-विचारचातुरधियः काले कलौ मद्विधाः ।। अर्थात् हे राजन्, हे साहसतुंग नृप, श्वेत वर्ण वाले छत्र के धारक तो अनेक हैं, किन्तु आपके सदृश रणक्षेत्र में विजय प्राप्त करने वाले नरेश दुर्लभ ही हैं और हे नृप, विद्वान् तो अनेक हैं किन्तु इस कलि-काल में नाना प्रकार के शास्त्रों के विचारों में चतुर बुद्धिवाले मेरे समान वाग्मी और वादीश्वर भी दुर्लभ ही हैं। कर्नाटक के शिलालेखों से यह भी स्पष्ट विदित होता है कि वहाँ के राजवंशों की स्थापना में जिस प्रकार जैनाचार्यों का सक्रिय सहयोग रहा, उसी प्रकार वहाँ के श्रावक-श्रेष्ठियों, श्राविकाओं तथा कृषकवर्ग का भी अपने राज्यों की श्री-समृद्धि एवं श्रमण-संस्कृति के विकास में अपरिमित योगदान रहा। वस्तुतः वहाँ के तपःपूत जैनाचार्यों ने सुयोग्य व्यक्तियों को राजनीति, अर्थनीति, रणनीति, विधि-व्यवस्था तथा चिकित्सा आदि की शिक्षाएँ प्रदान कर अथवा करवाकर उन्हें योग्य बनाया और उन्होंने भी कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु साम्राज्य के सर्वांगीण विकास के लिये हर प्रकार के समर्पित रचनात्मक सहयोग किये। इन्हीं के कारण कर्नाटक का मध्यकाल स्वर्णकाल बन सका। इन लोगों की कुशलता तथा आर्थिक सहयोग से हुम्मच के पट्टण-स्वामी का जिनालय, मागुडी का विशाल जिनालय, एक्कोटि जिनालय, होल्ललकेरे में शान्तिनाथ की जीर्णवसदि के उद्धार के साथ-साथ उन्होंने सामान्य जनता के लिये अनेक जलकूपों, सरोवरों, धर्मशालाओं एवं विद्यालयों के निर्माण कराये। ऐसे धनकुबेर शेट्टियों (या श्रेष्ठियों) में सम्यक्त्ववाराशि, नोक्करय शेट्टि (सन् १०६२), तत्वार्थसूत्र की कन्नड़-टीका कर्ता दिवाकर-शेट्टि, शिलाहार सेनापति कालन, रट्टनरेश कार्तवीर्य, शंकर सामन्त (१२८२ ई.) मुम्मुरि दण्ड, सोम गौडा, बाहुबलि शेट्टि, पारिशेटि, अरेय-मरेय नायक, आदि की गौरव-गाथाएँ वहाँ के शिलालेखों में भरी पड़ी हैं। कर्नाटक की यशस्विनी महिलाएँ शिलालेखों में मध्यकालीन यशस्विनी जैन महिलाओं के विभिन्न क्षेत्रों में रचनात्मक योगदानों की भी चर्चाएँ आई हैं। नागरखण्ड की प्रशासिका वीरांगना तथा सुश्राविका जक्कियव्वे (६११ ई.), सेनापति नागदेव की पत्नी अत्तिमव्वे (१०वीं सदी), जिसने कि कवि पोन्न कृत शान्तिनाथ पुराण की ताडपत्रीय पाण्डुलिपि की १००० प्रतिलिपियाँ कराकर समस्त जैन-केन्द्रों एवं मन्दिरों में सुरक्षित कराते हुए, स्वर्ण एवं ४६. श्रवणवेलगोला में उपलब्ध मल्लिषेण-प्रशस्ति
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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