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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख सचित्र राम-यशोरसायन-रास अपर नाम रामायण ११-१२ (जिसके २२४ पत्रों से केवल १३१ पत्र ही उपलब्ध हैं) आदि की रंग-बिरंगी चित्रकला विशेष महत्व की है। कहा जाता है कि जयपुर के एक शास्त्र-भण्डार में ऐसी भी एक जैन-पाण्डुलिपि सुरक्षित है, जो बहुमूल्य हीरे-जवाहरातों से जटित एवं चित्रित है। मध्यकालीन संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, राजस्थानी एवं गुजराती आदि के साहित्य का बहुलभाग कागज पर लिखा गया और राजनैतिक अराजकता, साम्प्रदायिक आँधियों तथा विविध प्राकृतिक कारणों से अगणित पाण्डुलिपियों के नष्ट हो जाने के बावजूद भी अवशिष्ट पाण्डुलिपियों की संख्या भी इतनी अधिक है कि अभी उनकी भली-भाँति गणना तक नहीं हो पाई है, मूल्यांकन एवं प्रकाशन तो बहुत दूर की बात है। अकेले राजस्थान एवं गजरात के प्राच्य शास्त्र-भण्डारों को देखकर साहित्य एवं पुरातत्व के महामनीषी डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने अपनी एक शोध-भाषण-माला में कहा था १३ ...."भारत को पाण्डुलिपियों का देश कहा जाए, तो अत्युक्ति न होगी। वाङ्मय के क्षेत्र में भारत की सांस्कृतिक निधि इतनी समृद्ध है कि ज्ञात होता है कि साहित्य के किसी महान अधिदेवता ने कुबेर जैसा अक्षय-कोष ही भर दिया है। संस्कृत, पालि, शौरसेनी, अर्धमागधी, प्राकृत और अपभ्रंश-भाषा, (जो कि आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास की एक महत्वपूर्ण कड़ी है), अभी कुछ वर्षों से अपने विपुल-साहित्य का भण्डार लिये हुये हमारे दृष्टिपथ में आ गई है। इस विशाल-साहित्य को विधिवत् सुरक्षित, सम्पादित और प्रकाशित करने के लिये एक बड़े राष्ट्रिय अभियान की आवश्यकता है।" भारतीय प्राच्य-लिपियाँ (Scripts): ब्राह्मी एवं खरोष्ठी भारतीय प्राच्य-विद्या के इतिहास के अनुसार भारत में प्राच्यकालीन दो लिपियों के उल्लेख मिलते हैं। ब्राह्मी-लिपि एवं खरोष्ठी-लिपि। आचार्य जिनसेन तथा आवश्यक-नियुक्ति-भाष्य और समवायांग-सूत्र (अभयदेवसूरि टीका पत्र-३६) आदि के अनुसार तीर्थंकर ऋषभदेव ने अपनी ब्राह्मी नामक पुत्री के लिये बाँई ओर से दाहिनी ओर लिखे जाने की लिपि-विद्या सिखाई थी १४ | जैन-मान्यतानुसार वही लिपि आगे चलकर ब्राह्मी-लिपि के नाम से प्रसिद्ध हुई। किन्तु साहित्यिक उल्लेखों को छोड़कर उसके अन्य पुरातात्विक साक्ष्य उपलब्ध नहीं होते। मोहनजोदारो एवं हरप्पा के उत्खनन में प्राप्त सीलों पर जो लेख मिले हैं, उनकी लिपि अभी तक विवादास्पद ही है। किन्तु अधिकांश विद्वानों की मान्यता है कि वह भी तत्कालीन ब्राह्मी-लिपि का ही एक रूप है। १२. जैन सिद्धांत भवन ग्रन्थावली आरा (बिहार) भाग-१ पृ. १८ १३. बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना में प्रदत्त भाषण का एक अंश १४. लिपि-पुस्तकादावक्षर विन्यासः । साचाष्टादशः प्रकार इति श्रीमन्नाभेय - जिनेन स्वसुताया ब्राह्मीनामिकाया दर्शिता ततो ब्राह्मीत्यभिधीयते। आह च-लेह लिपिविज्ज जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं। इति अतो ब्राह्मीति स्वरूप-विशेषण लिपेरित। दे.पत्र सं.५
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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