SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 102
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख इसी प्रकार अन्य हठीली राजकुमारियाँ भी श्रीपाल से कठिन से कठिन प्रश्न करती हैं किन्तु वह भी सहज स्वाभाविक एवं सटीक उत्तर देकर सभी का मन मोह लेता इस प्रकार की समस्यापूर्तियों में पौराणिक, आध्यात्मिक तथा समकालीन सामाजिक एवं लौकिक सभी प्रकार के प्रसंग रहते थे। श्रीपाल चूँकि अपने शिक्षाकाल में गुरु-चरणों में बैठकर सभी विद्याओं में पारंगत हो ही चुका था, अतः राजदरबार की इस जटिल अन्तर्वीक्षा (Interview) में वह उत्तीर्ण हो गया और उन सभी हठीली एवं गर्वीली राजकुमारियों को जीत कर उनके साथ उसने विवाह रचा लिया। बुन्देलखण्ड में यह परम्परा आज भी कुछ परिवर्तित रूप में देखी जाती है। सात फेरे पड़ने के बाद जब वधु वर के साथ जनमासे में ले आई जाती हैं, तो दोनों पक्षों के लोग वर-वधु को अपने मध्य में बैठा लेते हैं। उसी समय वर वधु से अनेक प्रकार के प्रश्न करता है और वधु अपनी योग्यतानुसार उनके उत्तर भी देती है। इसी प्रकार वधु भी वर से प्रश्न करती है। उसी प्रश्नोत्तरी से उपस्थित लोग वर-वधु की बौद्धिक चातुरी की परीक्षा कर उनके भविष्य को समझने का प्रयत्न करते हैं। समाज में कवियों एवं लेखकों के लिए आश्रयदान मध्यकालीन जैन-साहित्य के निर्माण का अधिकांश श्रेय श्रावक-श्राविकाओं, श्रेष्ठियों, राजाओं अथवा सामन्तों को हैं। उस समय श्रेष्ठिवर्ग एवं सामन्त, राज्य के आर्थिक एवं राजनैतिक विकास के प्रमुख कारण होने से राज्य में सम्मानित एवं प्रभावशाली स्थान बनाये हुए थे। समय-समय पर उन्होंने साहित्यकारों को प्रेरणाएँ एवं आश्रय-दान देकर साहित्य की बड़ी-बड़ी सेवाएँ की हैं। मध्यकालीन पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियाँ इस प्रकार के सन्दर्भो से भरी पड़ी हैं। इन आश्रयदाताओं की अभिरुचि बड़ी सात्विक एवं परिष्कृत पाई जाती हैं। भौतिक-समृद्धियों एवं भोग-विलास के ऐश्वर्यपूर्ण वातावरण में रहकर भी वे धर्म, समाज, राष्ट्र, साहित्य एवं साहित्यकारों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को विस्मृत नहीं करते थे। महामात्य भरत, उनके पुत्र नन्न, साहू नट्टल, साहू खेमसिंह एवं कमलसिंह संघवी प्रभृति आश्रयदाता इसी कोटि में आते हैं। "णायकुमारचरिउ" "जसहरचरिउ तथा "तिसट्ठिमहापुराणपुरिसगुणालंकारु" जैसे शीर्षस्थ अपभ्रंश-काव्यों के प्रणेता महाकवि पुष्पदन्त के "अभिमानमेरु", अभिमानचिन्ह तथा काव्यपिशाच जैसे गर्वीले और अद्भुत विशेषण सचमुच ही सार्थक प्रतीत होते हैं। उनका साहित्यिक अभिमान एवं स्वाभिमान विश्व-वाड्.मय के इतिहास में अनुपम है। उनकी एक प्रशस्ति के अनुसार एक बार उन्होंने सरस्वती को भी चुनौती दे डाली थी और कहा था-"हे सरस्वती, मैं ही तुम्हें अपनी जिह्वा पर आश्रय दे सकता हूँ, अन्य नहीं। मुझे छोड़कर तुम जाओगी कहाँ ?" एक राजदरबार में राजा द्वारा अपमानित हो जाने पर उस वाग्विभूति पुष्पदन्त ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु तत्काल ही अपना राज-निवास त्याग दिया था और
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy