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________________ जैन-पाण्डुलिपियाँ एवं शिलालेख ૬૬ अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः ।। नामक पंक्ति का उल्लेख कर उसे एक प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में प्रस्तुत कर तथा चीन-सरकार के दावे को गलत बताकर हिमालय के कण-कण पर युगों-युगों से भारत के स्वामित्व की घोषणा की थी, जब कि कालिदास के पूर्ववर्ती आचार्य-कुन्दकुन्द (ई. पू. १२) द्वारा किया गया अष्टापद (कैलाश पर्वत) का उल्लेख तो उक्त प्रसंग में ईसा-पूर्व काल से ही सम्पूर्ण हिमालय पर भारतीय स्वामित्व का सबल प्रमाण उपस्थित करता आ रहा है। किन्तु दुर्भाग्य, कि इस प्राचीन सबल प्रमाण की उपेक्षा की गई। इसका कारण क्या रहा होगा, यह अन्वेषण का विषय है। अभी कुछ समय पूर्व एक पाण्डुलिपि ऐसी भी दृष्टिगोचर हुई है, जिसमें सुरेन्द्रकीर्ति नामके एक भट्टारक की रेशन्दीगिरि से श्रवणबेलगोल तक की पैदल तीर्थयात्रा का वर्णन है। उक्त दोनों तीर्थों के मध्य में जितने भी जैन तीर्थ थे, जैसे उदयगिरि-खण्डगिरि, तथा कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश एवं बिहार के अधिकांश तीर्थक्षेत्रों की वन्दना कर उन्होंने उनका आँखों देखा संक्षिप्त वर्णन किया है। यह ऐतिहासिक पाण्डुलिपि अभी तक अप्रकाशित है। उक्त भट्टारक का समय १८वीं सदी के आसपास है। जैन-तीर्थों के इतिहास की दृष्टि से उस पाण्डुलिपि का जितना महत्व है, भारतीय इतिहास की दृष्टि से भी उसका उतना ही महत्व है। अतः ऐसी पाण्डुलिपि का तत्काल प्रकाशन आवश्यक है, क्योंकि वह हमारे लिए उसी प्रकार महत्वपूर्ण दस्तावेज सिद्ध हो सकती है, जिस प्रकार कि मेगास्थनीज, फाहियान, यूनत्सांग, अलवेरुनी, फादर मांटसेर्राट तथा जॉन मरे के यात्रा-वृतान्त । बहुत सम्भव है कि आज दिगम्बर जैन तीर्थों को लेकर दूसरों द्वारा जो नए-नए झगड़े खड़े किये जा रहें हैं, उनके समाधान में वह ग्रन्थ विशेष उपयोगी सिद्ध हो सके। एतद्विषयक उपलब्ध श्वेताम्बर-साहित्य का अधिकांशतः मूल्यांकन हो चुका है किन्तु दिगम्बर जैन-साहित्य अभी तक उपेक्षित ही पड़ा हुआ है। उत्तर-मध्यकालीन जैन पाण्डुलिपियों में उपलब्ध मलिकवाहण, मम्मणवाहण, दोहडोट्ट, पुक्खलावइ, हरिग्रहपुर, अहंगयाल, णाड, मेघकूडपुर, पुंडरीकिणी, बडपुर, सालिग्राम जैसे नगर अभी भी अपरिचित जैसे ही हैं, उच्चकप्प, प्रल्हादनपुर, कगडंकदुर्ग, नगरकोट्ट, एवं त्रिगर्त जैसे नगर भी अभी तक अपरिचित जैसे ही हैं। इन नगरों के इतिहास के पते लगाने की तत्काल आवश्यकता है, जो हमारी पाण्डुलिपियों से ही सम्भव कुछ उत्तर-मध्यकालीन पाण्डुलिपियों से यह भी जानकारी मिलती है कि कांगडा (हिमाचल) के आसपास विशाल दिगम्बर तथा श्वेताम्बर जैन मन्दिर निर्मित्त थे किन्तु बाद में श्वेताम्बर-मन्दिर तो बच गया, किन्तु दिगम्बर-मन्दिर नष्ट कर दिया गया।
SR No.032394
Book TitleJain Pandulipiya evam Shilalekh Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherFulchandra Shastri Foundation
Publication Year2007
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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