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________________ उपाध्याय बारस-अंग-सुजुत्तं, चउदह-पुव्वंग-विउल-वित्थरणं। स-पर-सत्थसंजोयग-मुवज्झाय-महं वदामि ॥4॥ अन्वयार्थ-(बारस-अंग सुजुत्तं) बारह अंग सहित (चउदहपुव्वंगविउल वित्थरणं) चौदह पूर्वांगों का विपुल विस्तार करने वाले [तथा] (स-परसत्थसंजोयगम्) स्व-पर को शास्त्रों में जोड़ने वाले (उवज्झायं) उपाध्यायों को (अहं) मैं (वंदामि) वन्दन करता हूँ। __ अर्थ-बारह अंग सहित चौदह पूर्वांगों का विपुल विस्तार करने वाले तथा स्व-पर को शास्त्रों में जोड़ने वाले अर्थात् अध्ययन-अध्यापन कराने वाले उपाध्याय को मैं वन्दन करता हूँ। साधु विसय-कसाय-विरत्तं, झाणज्झयणे सुजोइय अप्पं। सुतिण्णमुच्छारंभं, विगदासं साहुं वंदामि॥5॥ अन्वयार्थ-(विसय-कसाय-विरत्तं) विषय कषाय से विरक्त (झाणज्झयणे) ध्यान अध्ययन में (सुजोइय अप्पं) अच्छी तरह से युक्त आत्मा [तथा] (सुतिण्णमुच्छारंभं) मूर्छा-आरम्भ से पार (विगदासं) आशा से रहित (साहुं) साधु को [मैं] (वंदामि) वन्दन करता हूँ। अर्थ-विषय कषाय से विरक्त, ध्यान-अध्ययन में अच्छी तरह से युक्त आत्मा, मूर्छा व आरंभ तथा आशा से रहित साधुओं को मैं वन्दन करता हूँ। जिनधर्म अहिंसासच्चरूवं, सुहदायगं च जीवहिदकारिणं। तित्थयरधरिदं सुहं, जिणोवदिट्ठधम्ममहं वंदामि ॥6॥ अन्वयार्थ-(अहिंसासच्च रूवं) अहिंसा सत्य रूप (सुहदायगं) सुखदायक (जीवहिदकारिणं) जीव हित करने वाले तथा (तित्थयरधरिदं) तीर्थंकरों के द्वारा धारित (सुहं) शुभ (जिणोवदिट्ठधम्म-महं वंदामि) जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट जिनधर्म को मैं वन्दन करता हूँ। अर्थ-सत्य-अहिंसा रूप सुख के उत्पत्ति स्थान, जीवों का उत्कृष्ट हित करने वाले तीर्थंकरों के द्वारा धारित तथा जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट जिनधर्म को मैं वन्दन करता हूँ। 86 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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