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________________ वंस) शुभ नाथ वंश वाले (सो) वह (सिद्धत्थराय) सिद्धार्थ राजा (खलु) निश्चित ही (सिद्धमणोरही) सिद्ध मनोरथी हैं (जस्स) जिनके (सुज्जो समाण वर सुपुत्तजादो) सूर्य के समान श्रेष्ठ सुपुत्र उत्पन्न हुआ (तं वड्ढमाण-जिणणाहमहं णमामि) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ। अर्थ-अत्यन्त शुद्ध जाति और शुभ नाथवंश वाले वे राजा सिद्धार्थ निश्चित ही सिद्ध मनोरथ वाले हैं, जिनके सूर्य के समान श्रेष्ठ सुपुत्र उत्पन्न हुआ, जिनके जन्म लेने से उस जाति, वंश और पिता की महिमा बढ़ी उन श्री वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ। रण्णी सुसेट्ठ-तिसला अदि-पुण्णवंती, बालंजणेज जग-तारग-दुक्ख-हंता। जस्सप्पसाद-पियकारिणि-णाम-जादं, तं वड्ढमाण-जिणणाह-महं णमामि॥4॥ अन्वयार्थ-(रण्णी सुसेट्ठ तिसला) अति श्रेष्ठ रानी त्रिशला (अदिपुण्णवंती) अति पुण्यवती हैं [जिनने] (जग-तारग) जग तारक (य) और (दुक्खहंता) दुःख-नाशक (बालं जणेज) बालक उत्पन्न किया (जस्सपसाद-पियकारिणि णाम जादं) जिनके प्रसाद से प्रियकारिणी नाम हुआ (तं वड्ढमाण-जिणणाहमहं णमामि) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ। __ अर्थ-वे अतिश्रेष्ठ महारानी त्रिशला अत्यन्त पुण्यवती हैं जिन्होंने जग उद्धारक और जीवों के दुःखों को नष्ट करने वाला श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न किया। जिनके प्रसाद से माता का प्रियकारिणी नाम अत्यन्त शोभा को प्राप्त हुआ, उन वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ। धण्णाधरा सयल-जीव-समूह-धण्णो, जादम्मिजंसि भुविधाम-सुधण्ण-पुण्णं। धण्णा जणाणयर-रट्ठय - रज-धण्णं, तंवड्ढमाण-जिणणाह-महं णमामि॥5॥ अन्वयार्थ-(जंसि) जिनके (जादम्मि) उत्पन्न होने पर (धण्णा धरा) धरा धन्य हुई (सयल जीव समूह धण्णो) सकल जीव समूह धन्य हुआ (भुवि धाम सुधण्ण पुण्णो) पृथ्वी महलों, सुधान्यों से पूर्ण हुई (धण्णाजणा) मनुष्य धन्य हुए (णयर-रट्ठ-य-रज-धण्णं) नगर, राष्ट्र और राज्य धन्य हुआ (तं वड्ढमाणजिणणाहमहं णमामि) उन वर्धमान जिननाथ को मैं नमन करता हूँ। अर्थ-जिन महावीर भगवान के उत्पन्न होने पर धरा धन्य हुई, समस्त जीवों का समूह धन्य हुआ; पृथ्वी, महलों (घरों) व श्रेष्ठ धान्यों से पूर्ण हुई, मनुष्य धन्य हुए; भ्रष्टाचार, भेदभाव व हिंसा के मिट जाने से नगर, राज्य और समस्त राष्ट्र धन्य हुआ, उन वर्धमान जिनेश्वर को मैं नमन करता हूँ। 78 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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