SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्वयार्थ - (कुमारकाले हि) कुमार काल में ही (सव्वं) सब कुछ (चइदूण) छोड़कर [जो] (महाणुभावं ) महानुभाव (सुगुणेहिपुण्णं) सद्गुण-निधान (हलिंददेविंद - रिंद - पुज्जं ) हलीन्द्र - बलभद्र, नरेन्द्र - अर्धचक्रवर्ती [ तथा ] सौधर्मेन्द्र आदि से पूज्य [हुए उन] (णिग्गंथदेवं) निर्ग्रथदेव (गेमिं) नेमिनाथ जिनेन्द्र को (पणमामि ) प्रणाम करता हूँ । अर्थ - कुमार काल में ही सब कुछ छोड़कर जो महानुभाव सद्गुण-निधान हलीन्द्र अर्थात् बलभद्र, नरेन्द्र अर्थात् चक्रवर्ती अथवा अर्धचक्रवर्ती श्रीकृष्ण तथा देवेन्द्र अर्थात् सौधर्मेन्द्र आदि से पूज्य हुए उन निर्ग्रथदेव श्री नेमिनाथ जिनेन्द्र को मैं प्रणाम करता हूँ। मग्गग्गणि णाम-जिदोवसग्गं, तं कम्मभेत्तारमणंतणाणि । जीवाण दुक्खाणि हत्तारमीसं, विग्घावहारिं पणमामि पासं ॥23॥ अन्वयार्थ – (मग्गग्गणि) मार्ग अग्रणी (जिदोवसग्गं) उपसर्गजेता (कम्मभेत्तारं ) कर्म का भेदन करने वाले ( अणंतणाणि) अनंतज्ञानी ( जीवाण दुक्खाणि हंतारमीसं) जीवों के दुःखों को हरने वाले स्वामी (विग्घावहारि) विघ्नों को हरने वाले (पासं) पार्श्व को (पणमामि ) नमन करता हूँ । अर्थ - उपसर्ग विजेता, मोक्ष-मार्ग के नेता, कर्मों को भेदने वाले, अनंतज्ञानी और जीवों के दुःखों को नष्ट करने वाले विघ्नहारी महान पार्श्वनाथ भगवान को मैं प्रणाम करता हूँ । भव्वाण इंदु णिरवेक्ख-बंधुं, वच्छल्लसिंधुं भवरोग- वेज्जं । जेणप्पणीदं करुणा-सु-धम्मं, तं वड्ढमाणं पणमामि वीरं ॥24 ॥ - अन्वयार्थ- ( णिरबेक्ख बंधुं) निरपेक्ष बंधु (भव्वाण-इंदु ) भव्य जीव रूपी कमलों के लिए चन्द्रमा ( भवरोग वेज्जं ) भव रोग शमनार्थ वैद्य ( वच्छल्ल सिंधु) वात्सल्य के महासागर [ तथा ] ( जेण) जिन्होंने (करुणा-सु- धम्मं पणीदं) करुणामय सुधर्म अर्थात् अहिंसाधर्म का प्रतिपादन किया (तं) उन (वीरं वड्ढमाणं) वीर वर्धमान को (पणमामि) प्रणाम करता हूँ । अर्थ-जगत के निरपेक्ष बंधु, भव्य जीव रूपी कमलों के लिए चन्द्रमा के समान, भव रोग शमनार्थ वैद्य, वात्सल्य के महासागर तथा जिन्होंने करुणामय सुधर्म अर्थात् परम अहिंसा धर्म का प्रतिपादन किया उन वीर - वर्धमान जिनेन्द्र को मैं प्रणाम करता हूँ । इणं त्थुदिं च जो णिच्छं, पढदि तह चिंतदि । सग्ग- मोक्खं च पावेदि, सुलीणो ण हि संसओ ॥25॥ चउवीस - तित्थयर-त्थुदी :: 69
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy