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________________ से (पुण्णं) सम्पूर्ण (कम्मं पयडिं) कर्म प्रकृतियों को (हंतूण) नष्टकर (मुत्ती सरूवी पदविं पत्तं) मुक्ति स्वरूपी पदवी को प्राप्त किया (तं संभवं दिव्वजिणं णमामि) उन संभवनाथ दिव्य जिनदेव को [मैं] नमन करता हूँ। ___ अर्थ-जिन्होंने शुक्लध्यान रूपी प्रबन्ध के प्रभाव से सम्पूर्ण कर्म प्रकृतियों को नष्टकर मुक्ति स्वरूपी पदवी को प्राप्त किया, उन संभवनाथ दिव्य जिनदेव को मैं नमन करता हूँ। सुणंदणाणं-अहिणंदणो हि, भव्वाण वा आदहिदंकराणं। पयासिदो णिम्मल-जेण-धम्मो, देवाहिदेवं पणमामि तं हं॥4॥ अन्वयार्थ-(हि) वास्तव में (अहिणंदणो) अभिनन्दन (सुणंदणाणं) सुनन्दन के लिए हैं, (भव्वाण जीवाण अप्पहिदाणं) भव्य जीवों के लिए आत्म-हित के लिए हैं, जिन्होंने (णिम्मल-जेण-धम्म) निर्मल-जैनधर्म (पयासिदं) प्रकाशित किया (तं) उन (देवाहिदेवं) देवादिदेव को (हं) मैं (णिच्चं) नित्य (पणमामि) प्रणाम करता हूँ। अर्थ-वास्तव में अभिनन्दन जिनेन्द्र श्रेष्ठ आनंद देने के लिए हैं, भव्य जीवों के आत्म-हित के लिए हैं तथा जिन्होंने निर्मल-जैनधर्म प्रकाशित किया है, उन देवादिदेव श्री अभिनन्दननाथ भगवान को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ। सम्मत्तदाणे जलदव्व जो य, सण्णाणदाणे पियबंधु-तुल्लो। पप्पोदि मोक्खो य सुभत्तिए हि, तं देवदेवं सुमदिं णमामि॥5॥ अन्वयार्थ-[जो] (सम्मत्तदाणे जलदव्व) सम्यक्त्वदान में मेघ के समान हैं, (सण्णाणदाणे पियबंधु-तुल्लो) सम्यग्ज्ञानदान में प्रियबन्धु के समान हैं (य) और [जिनकी] (सुभत्तिए) श्रेष्ठ भक्ति से (हि) निश्चित ही (मोक्खो य) मोक्ष (पप्पोदि) प्राप्त होता है (तं देवदेवं सुमदिं णमामि) उन देवों के देव सुमतिनाथ जिनेन्द्र को मैं नमन करता हूँ। अर्थ-जो सम्यक्त्वदान में मेघ के समान हैं, सम्यग्ज्ञान दान में प्रियबन्धु के समान हैं और जिनकी श्रेष्ठ भक्ति से निश्चित ही चारित्र तथा मोक्ष प्राप्त होता है, उन देवों के देव सुमतिनाथ जिनेन्द्र को मैं नमन करता हूँ। पोम्मसमं णिम्मल-पोम्मणाहं, पोम्मालयं केवलणाण-गेहं। सूरेण तुल्लं परमप्पयासिं, पोम्मप्यहं तं भयवं णमामि ॥6॥ अन्वयार्थ-(पोम्मसमं) पद्म के समान (पोम्मणाहं) पद्मनाथ(णिम्मल) निर्मल (पोम्मालयं) लक्ष्मी के स्थान (केवलणाण-गेहं) केवलज्ञान के घर (सूरेण तुल्लं परमप्पयासिं) सूर्य के समान परमप्रकाशी हैं (पोम्मप्पह) पद्मप्रभ (भयवं) भगवान चउवीस-तित्थयर-त्थुदी :: 63
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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