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________________ दिणेक्क-जादो सुहपुण्ण-पुंजो, जिणिंद-देवस्स णमस्सणेणं। अणंतजम्मेण वि सो ण जादो, णंतेण कज्जेण सुमंगलेणं॥7॥ अन्वयार्थ-(जिणिंद-देवस्स णमस्सणेणं) जिनेन्द्र देव को नमस्कार करने से [जो] (सुहपुण्ण-पुंजो) शुभ पुण्य का पुंज (दिणेक्क जादा) एक दिन में ही उत्पन्न हो जाता है (सो) वह (णंतेण कज्जेण सुमंगलेण) मंगलमय अनन्त कार्यों से (अणंत जम्मेण वि सो ण जादो) अनंत जन्मों में भी नहीं उत्पन्न होता है। अर्थ-जिनेन्द्र देव को नमस्कार करने से जितना शुभकर्म रूप पुण्य का पुंज एक दिन में ही उत्पन्न हो जाता है, उतना पुण्यपुंज मंगलमय अनन्त कार्यों से अनंत जन्मों में भी नहीं उत्पन्न होता है। पूजं च कुव्वंति जिणेस्सराणं, झायंति जे भावविसुद्ध-चित्ते। ते सज्जणा ताव-विणासणढं, पावंति मोक्खं सुह-सग्ग-भुत्ता॥8॥ अन्वयार्थ-(जे) जो (ताव विणासणटुं) संसार ताप विनाश के प्रयोजन से (जिणेस्सराणं) जिनेन्द्र भगवंतों की (पूर्ण) पूजा (कुव्वंति) करते हैं (झायंति भावविसुद्ध चित्ते) अथवा अत्यन्त विशुद्ध भाव युक्त चित्त में ध्यान करते हैं (ते सजणा) वे सजन (सग्ग-सुह-भुत्ता) स्वर्ग सुख भोगकर (मोक्खं) मोक्ष को (पावंति) प्राप्त करते हैं। अर्थ-जो श्रेष्ठ मनुष्य संसार-ताप विनाश के प्रयोजन से जिनेन्द्र भगवंतों की अष्टद्रव्य से पूजा करते हैं अथवा अत्यन्त विशुद्ध भाव युक्त चित्त से ध्यान करते हैं, वे सज्जन स्वर्ग सुख भोगकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। जो जिणिंद-त्थुदि णिच्चं, पढेदि वा सुणेदि वा। ईसरत्तं च पाऊण, सग्गं मोक्खं च पावदि॥9॥ अन्वयार्थ-(जो) जो (णिच्चं) नित्य (जिणिंदत्थुदिं) जिनेन्द्र स्तुति को (पढेदि) पढ़ता है (वा) अथवा (सुणेदि) सुनता है (च) वह (ईसरत्तं पाऊण) ऐश्वर्य प्राप्त कर (सग्गं मोक्खं च पावदि) स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है। अर्थ-जो नित्य ही इस जिनेन्द्र स्तुति को पढ़ता है अथवा सुनता है वह सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त कर क्रमशः स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त करता है। जिणिंद-त्थुदी :: 61
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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