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________________ अइविणण तेण सुविणाणं सव्वो वत्तंत्तो णिवेदिदो । धीर-वीर - गहीरो, छिण्ण-सद्द - भूम - वंजण - अंग-सर- अंतरिक्खसिविणादि अट्ठगणिमित्त - कुसलो भद्दबाहूसामी सिविणाण फलं एवं पगडेदि । दीक्षा हेतु आज्ञा : ज्ञान-विज्ञान, स्वरूप-सौभाग्य सम्पन्न भद्रबाहु को देखकर माता-पिता और परिजन अत्यधिक हर्षित और संतुष्ट हुए । भद्रबाहु को विद्या- कला ( कौशल) और न्यायशास्त्र प्रवीण देखकर नगर के राजा ने भी उनका बहुमान किया। परिजनों में, विद्वानों में कुछ काल व्यतीतकर उनको सम्यक्धर्म का ज्ञान देकर एक बार भद्रबाहु पिता से बोले - हे पिताजी ! स्व कल्याणार्थ जिनदीक्षा हेतु आपकी आज्ञा चाहता हूँ। यह वचन सुनकर सभी परिजन दु:खी हुए। सभी को भद्रबाहु का वियोग अतिकष्टकर भासित होता है । तब भद्रबाहु ने सभी के लिए सम्यक् उपदेश और कल्याणकारी वचनों से प्रतिबुद्ध किया । अनन्तर माता-पिता और परिजनों की यथायोग्य आज्ञा ग्रहण करके भद्रबाहु अपने गुरु के पास पहुँच गये। सम्पूर्ण वृतान्त अतिविनयपूर्वक कहकर भद्रबाहु गुरु से इस प्रकार प्रार्थना करते हैं- भगवन् ! कल्याणकारी, सर्वसंतापहारी, आकाश के समान निर्लेप, पृथ्वी के तुल्य गम्भीर, एकांत विरतिरूप और देवेन्द्र - वृन्द प्रार्थनीय निर्ग्रन्थ दीक्षा मुझे दीजिए। गोवर्धनाचार्य ने जैनेश्वरी दीक्षा देकर भद्रबाहु के लिए कृतार्थ किया। मुनिसंघ में शास्त्रानुसार प्रवर्तित होते हुए, पंचाचार का पालन करते हुए, भद्रबाहु क्रमशः श्रुतकेवली हुए । आयु अवसान काल को समीप जानकर भद्रबाहु श्रुतकेवली को संघभार देकर, श्रेष्ठ सल्लेखना धारण करके मुनिनाथ गोवर्धन स्वामी स्वर्ग सिधारे । अष्टांगनिमित्तधारी श्रुतकेवली भद्रबाहुस्वामी मुनिसंघ के साथ देश-प्रदेश में विहार करते हुए धर्मोपदेश और दीक्षा तथा शिक्षा करते हुए अतिप्रसिद्ध हुए । चन्द्रगुप्त की दीक्षा : एक बार अपने संघ सहित विहार करते हुए आचार्य भद्रबाहु पाटलिपुर (पाटलिपुत्र) पहुँचे। उस समय उस नगर का राजा जिनधर्म परायण, अत्यधिक बलवान्, नीतिनिपुण, निर्ग्रन्थ गुरुभक्त चन्द्रगुप्त था । उसने अति उत्साहपूर्वक सामंत, श्रेष्ठी वर्ग सहित मुनिसंघ का स्वागत किया। वह राजा श्रुतकेवली गुरुराज की और मुनिसंघ की भक्ति में तल्लीन हो गया । एक रात्रि में भारत के अधिपति (सम्राट) महाराज चन्द्रगुप्त ने सोलह बुरे स्वप्नों को देखा । प्रातः काल (ब्रह्ममुहूर्त) में अपने गुरु भद्रबाहु स्वामी के समीप जाकर विधिपूर्वक वंदना करके अतिविनयपूर्वक गुरु के सम्मुख उसने सभी स्वप्नों का वृतान्त निवेदन किया । धीर-वीर - गम्भीर, छिन्न- शब्द - १ -भूमि - व्यंजन- अंग- स्वर - अंतरिक्ष- स्वप्न आदि अष्टांग निमित्त कुशल भद्रबाहु स्वामी स्वप्नों का फल इस प्रकार प्रकट करते हैं भद्दबाहु-चरियं :: 387
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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