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________________ आइरिय-सुणीलसायरप्पणीदं भद्दबाहु-चरियं (भद्रबाहु-चरित) सादि-जिणवराणं, णमिऊण यगोम्मटेस-जिणणाहं। वोच्छामि भद्दबाहु-चरियं च पुव्वाइरिय-कमेण॥ अस्थि अणाहिणिहणो जेणधम्मो। उवसप्पिणी-अवसप्पिणी काल-रूवेण पवटुंतम्मि कालम्मि अणंत-चउवीसी जादा। पवट्टमाणे अवसप्पिणीकाले वि चउवीसतित्थयरा संजादा। ताण णामाणि वि उवलद्धाणि। जहा य वुत्तं पडिक्कमणसुत्ते सिरी गोदमसामिणा उसह-मजियं च वंदे, संभव-मभिणंदणं च सुमइंच। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे॥1॥ सुविहिं च पुष्फयंतं, सीयल-सेयं च वासुपुजं च। विमल-मणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥2॥ कुंथु च जिणवरिंद, अरं मल्लिं सुव्वयं च णमिं। वंदामि रिट्ठणेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च॥3॥ ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों (जिनवरों) के लिए और गोम्मटेश्वर जिननाथ के लिए नमस्कार करके, पूर्वाचार्यों के क्रम से आगत भद्रबाहु चरित्र को कहता हूँ। जैनधर्म अनादिनिधन है। उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालरूप प्रवर्तित काल में अनंत चौबीसी हुई हैं। प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में भी चौबीस तीर्थंकर हुए हैं। उनके नाम भी उपलब्ध हैं। जैसे प्रतिक्रमण सूत्र में भी गौतम स्वामी ने कहा वृषभ,अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, सुविधिनाथ (पुष्पदंत), शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनंतनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरनाथ, मल्लिनाथ, सुव्रतनाथ, नमिनाथ, अरिष्टनेमि (नेमिनाथ), पार्श्वनाथ और वर्धमान (महावीर) भगवान की मैं वंदना करता हूँ। भयवंतो वड्ढमाणो महावीर-जिणेसरो अंतिमो तित्थयरो जादो। तस्स अणंतरंण हुजादो कोवि तित्थेसरा, किण्णु तस्स सिस्स-परंपराए तिय अणुबद्धकेवलिणो संजादा।तं जहा-सिरी इंदूभदि-गोदमो, सुहम्माइरियो तहय जंबू सामी। भद्दबाहु-चरियं :: 381
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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