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________________ संबोधिमंत-संजुत्तं, संसोहितच्च-णायगं। महव्वदिं महामोणिं, वंदे सम्मदिसायरं ॥79॥ अन्वयार्थ-(संबोधिमंत-संजुत्तं) संबोधि मंत्र संयुक्त, (संसोहितच्च णायगं) संशुद्धि तत्त्वनायक (महव्वदि) महाव्रती (महामोणिं) महामौनी (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-संबोधिमंत्र संयुक्त, संशुद्धि तत्त्वनायक, महाव्रती, महामौनी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। णिरालस्संचिदाणंद, रयणत्तय-लंकिदं। तवस्सीरयणं लोए, वंदे सम्मदिसायरं ॥80॥ अन्वयार्थ-(णिरालस्स) निरालस्य (चिदाणंदं) चिदानंद (रयणत्तयालंकिदं) रत्नत्रय से अलंकृत (लोगे) लोक में (तवस्सीरयणं) तपस्वीरत्न (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-निरालस्य, चिदानंद, रत्नत्रय से अलंकृत, लोक में तपस्वीरत्न श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। महामंतिं महातंति, महाजंतिं महेसिणं। महासंतिं महाखंति, वंदे सम्मदिसायरं ॥81॥ अन्वयार्थ-(महामंति) महामंत्री (महातंति) महातंत्री (महाजंति) महायंत्री (महेसिणं) महर्षि (महासंति) महाशांति (महाखंति) महाक्षांति युक्त (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-महामंत्री, महातंत्री, महायंत्री, महर्षि, महाशांति, महाक्षांति युक्त श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। विजाणंदं दयाणंद, विवेगाणंद माणसं। तवसाणंद णंदेदिं, वंदे सम्मदिसायरं ॥82॥ अन्वयार्थ-(विजाणंदं) विद्यानंद (दयाणंदं) दयानंद (विवेगाणंद माणसं) विवेकानंद मानस (तवसाणंदणंदेदि) तप के आनंद से आनंदित होने वाले (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-विद्यानंद, दयानंद, विवेकानंद, माणस तप के आनंद से आनंदित होने वाले श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। सोम्ममुत्तिं सुसोमप्पं, चरित्तुजल-धारिणं। भव्वजीवाण तादारं, वंदे सम्मदिसायरं ॥83॥ सम्मदि-सदी :: 373
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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