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________________ अन्वयार्थ— (संताघकल्मसं) शांत हो गए हैं पापरूप कल्मष जिनके (तिविहा ताव हारिणं) दैहिक, दैविक व मानसिक ताप को हरनेवाले (जोगणिट्ठ) योगनिष्ठ ( महाजोगिं) महायोगी ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - शांत हो गए हैं पापरूप कल्मष जिनके, दैहिक, दैविक व मानसिक ताप को हरनेवाले महायोगी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । तवोणिहिं महाधीरं, सम्मं बुद्धं सुजोगिणं । बंभयारिं सदायारिं वंदे सम्मदिसायरं ॥58 ॥ अन्वयार्थ - ( तवोणिहिं) तपोनिधि (महाधीरं) महाधीर ( सम्मं बुद्धं) सम्यक् बुद्ध (सुजोगिणं) सुयोगी (बंभयार) ब्रह्मचारी, (सदायारी) सदाचारी ( सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ – तपोनिधि, महाधीर, सम्यक् बुद्ध, सुयोगी, ब्रह्मचारी, सदाचारी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । देवपुज्जं महापुज्जं, खगेहिं माणुसेहि य । सव्वपुज्जं सदापुज्जं वंदे सम्मदिसायरं ॥ 59 ॥ " अन्वयार्थ - (देवपुज्जं) देवपूज्य, (खगेहिं माणुसेहि य) विद्याधरों व मनुष्यों से महापुज्जं) महापूज्य (सव्वपुज्जं ) सर्वपूज्य (सदापुज्ज) सदापूज्य (सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ — देवपूज्य, विद्याधरों व मनुष्यों से महापूज्य, सर्वपूज्य, सदापूज्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । मणस्सीणं मणोपूदं विमलं कित्तिसालिणं । विजाहरं च सण्णाणिं, वंदे सम्मदिसायरं ॥160 ॥ अन्वयार्थ – (मणस्सीणं) मनस्वी (मणोपूदं) मनःपूत (विमलं) विमल (कित्तिसालिणं) कीर्तिशाली (विज्जाहरं ) विद्याधर (च) और ( सण्णाणिं) सम्यग्ज्ञानी सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - मनस्वी, मनःपूत, विमल, कीर्तिशाली, विद्याधर और सम्यग्ज्ञानी श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । सुधीरं सच्चरूवं च, णाणम्मिद - वरिसिणं । संतोसपुण्ण-चित्तं च, वंदे सम्मदिसायरं ॥61 ॥ अन्वयार्थ – (सुधीरं) सुधीर, ( सच्चरूवं) सत्यरूप, (णाणम्मिद-वरिसिणं) ज्ञानामृत बरसाने वाले ( संतोसपुण्ण - चित्तं च) संतोषपूर्ण चित्तवाले ( सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । 368 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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