SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 364
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संकप्पे पव्वयं तुल्लं, धीरं धेये धरोवमं । गंभीरं सिंधुवं भावे, वंदे सम्मदिसायरं ॥32॥ अन्वयार्थ – (संकप्पे पव्वयं तुल्लं) संकल्प में पर्वत के समान कठोर ( धीरं धेये धरोवमं) धैर्य धारण में धरा के समान ( भावे) भावों में (सिंधुवं) समुद्र के समान (गंभीरं) गंभीर ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - संकल्प में पर्वत के समान कठोर, धैर्य धारण में धरा के समान, भावों समुद्र के समान गंभीर श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । में सच्चं विभासदे वाणी, सिवं धत्ते हिदालये । सुंदरं चरियं सम्मं वंदे सम्मदिसायरं ॥33॥ अन्वयार्थ – (सच्वं विभासदे वाणी) जो सत्य वाणी बोलते हैं, (सिवं धत्ते हिदालये) हृदय में मोक्ष को धारण करते हैं तथा जिनकी (सुंदरं सम्मं चरियं) सुंदर सम्यक् चर्या है उन (सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - जो सत्य वाणी बोलते हैं, हृदय में मोक्ष को धारण करते हैं तथा जिनकी सुंदर सम्यक् चर्या है उन श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । कंति - कलाधरं कंतं, संति - सुधाकरं ससिं । भंति तमोहरं सुज्जं वंदे सम्मदिसायरं ॥34॥ अन्वयार्थ - (कंतिकलाधरंकंतं ) क्रांति कलाओं के धारक क्रांता ( संति सुधाकरं ससिं) शांति सुधा को बरसाने वाले शशि (भंति तमोहरो सुज्जं ) भ्रांतिरूपी अंधकार को हरने वाले सूर्य ( सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ - क्रांति कलाओं के धारक क्रांता, शांति सुधा के बरसाने वाले शशि, भ्रांतिरूपी अंधकार को हरनेवाले सूर्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ । दीवंव्व दीवगं अण्णं, समीरंव्व समीरगं । णीरंव्व सोधगं सुद्धं, वंदे सम्मदिसायरं ॥35॥ अन्वयार्थ - ( दीवंव्व दीवगं अण्णं) दीपक के समान अन्य को प्रकाशित करने वाले (समीरंव्व समीरगं) वायु के समान दूसरों को प्रभावित करने वाले (णीरंव्व सोधगो सुद्धं) नीर के समान शोधक शुद्ध (सम्मदिसायरं ) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ । अर्थ - दीपक के समान अन्य को प्रकाशित करनेवाले, वायु के समान दूसरों को प्रभावित करनेवाले, नीर के समान शोधक शुद्ध श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। 362 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy