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________________ दिक्खा सिक्खा यदायारं, पंचाचारादि संजुदं। वच्छल्लपुण्णहिदयं, वंदे सम्मदिसायरं ॥19॥ अन्वयार्थ-(दिक्खा सिक्खा य दायारं) दीक्षा व शिक्षा देनेवाले (पंचाचारादि संजुदं) पंचाचार आदि संयुत (वच्छल्लपुण्णहिदयं) वात्सल्यपूर्ण हृदयवाले, (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। __ अर्थ-दीक्षा व शिक्षा देनेवाले, पंचाचार आदि से संयुक्त, वात्सल्यपूर्ण हृदयवाले श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। णिवसेज दयाणेत्ते, वदणे सुदसंपदा। हिदए जिणदेवा य, वंदे सम्मदिसायरं ॥20॥ अन्वयार्थ-जिनके (णेत्ते) नेत्रों में (दया) दया (वदणे सुदसंपदा) मुख में श्रुत संपदा (य) तथा (हिदए) हृदय में (जिणदेवा) जिनदेव (णिवसेज्ज) रहते हैं उन (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-जिनके नेत्रों में दया, मुख में श्रुत संपदा तथा हृदय में जिनदेव रहते हैं उन श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। णिइंदं णिम्ममं णिच्चं, णिव्वेदग-णिरालसं। मोक्खमग्गरदं पुजं, वंदे सम्मदिसायरं ॥21॥ अन्वयार्थ-(णिइंदं णिम्ममं णिच्च) नित्य निर्द्वद्व निर्मम (णिव्वेदग-णिरालसं) निर्वेदक निरालस्य (मोक्खमग्गरदं) मोक्षमार्गरत (पुजं) पूज्य (सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-नित्य निर्द्वद्व, निर्ममत्व, निर्वेदक निरालस्य, मोक्षमार्गरत पूज्य श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। दूरदंसी गहीरं च झाणज्झयण-संजुदं। सुजव्वभव्व-पोम्माणं वंदे सम्मदिसायरं ॥22॥ अन्वयार्थ-(दूरदंसी) दूरदर्शी (गहीरं) गंभीर (च) और (झाणज्झयण संजुदं) ध्यानाध्ययन संयुक्त (भव्वपोम्माण सुज्जवं) भव्यरूपी कमलों के लिए सूर्य के समान सम्मदिसायरं) सन्मतिसागर को (वंदे) वंदन करता हूँ। अर्थ-दूरदर्शी, गंभीर, ध्यानाध्ययन से संयुक्त, भव्यरूपी कमलों के लिए सूर्य के समान श्री सन्मतिसागर को वंदन करता हूँ। महोवसग्गजेदारं, णंतवीरिय-थावगं। तक्क-णीरासगं-जोइं, वंदे सम्मदिसायरं ॥23॥ सम्मदि-सदी :: 359
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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