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________________ दशा के समान है। सुबुद्धिपूर्ण प्रवृत्ति मनुष्यप्रवृत्ति के समान है और श्रेष्ठ बुद्धि से जीव सिद्ध होता है । आत्मधर्म सुखप्रद है समभावेण उप्पण्णो, विवेगेण ववत्थिदो । पइट्ठिदो जिणण्णाए, अप्पधम्मो सुहावहो ||46 ॥ अन्वयार्थ – (समभावेण उप्पण्णो) सम- शमभाव से उत्पन्न (विवेगेण ववत्थिदो) विवेक से व्यवस्थित ( जिणण्णाए पइट्ठिदो ) जिनाज्ञा से प्रतिष्ठित (अप्पधम्मो सुहावहो) आत्मधर्म सुखप्रद है । भावार्थ - शमभाव से उत्पन्न आत्मधर्म सुखप्रद है। विवेक से व्यवस्थित आत्मधर्म सुखप्रद है। जिनाज्ञा से प्रतिष्ठित आत्मधर्म सुखप्रद है । अन्त में आत्मधर्म ही सुखप्रद है । धर्म आदेय है धम्मो सव्वजणीणो दु, सव्वभोमो सुहंकरो । सव्वकालिय आदेज्जो, गिण्हेज्ज सज्जणा जणा ॥47 ॥ अन्वयार्थ - (धम्मो ) धर्म (सव्वजणीणो) सर्वजनीन (सव्वभोमो) सार्वभौम (सुहंकरो) सुखकर (सव्वकालिय आदेज्जो) सर्वकालिक आदेय है (दु) इसलिए इसे (सज्जणा जणा) सज्जनजन (गिण्हेज्ज) ग्रहण करें। भावार्थ - धर्म सर्वजनीन, सार्वभौम, सुखकर, सार्वकालिक आदेय है । इसलिए इसे सज्जनजन ग्रहण करें, जीवन में धारण करें । बिन्दुओं से सिन्धु भर जाता है बिंदूहिं पूरदे सिंधू, खणेहिं जीवणं तहा । रेहिं च समाजो य, गुणेहिं अप्पपुण्णदा ॥48 ॥ अन्वयार्थ - ( बिंदूहिं पूरदे सिंधू) बूंदों से सागर भरता है (खणेहि जीवणं तहा) क्षणों से जीवन(णरेहिं समाजो) मनुष्यों से समाज (य) और (गुणेहिं अप्पपुण्णदा) गुणों से आत्मपूर्णता होती है । भावार्थ - बूंद-बूंद से घड़ा भर जाता है। क्षण-क्षण से जीवन बन जाता है। मनुष्यों से समाज बनता है । और एक एक गुण की पूर्णता होने से आत्मा परमात्मा बन जाता है। ध्यान के लिए शान्तचित्त चाहिए जाणत्थं वाहगो जोग्गो, गाणत्थं गायगो परो । णाणत्थं गाहको पत्तो, झाणत्थं संतचित्तता ॥49 ॥ 348 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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