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________________ अर्थ-राज्यावस्था में प्रजा को असि, मसि, कृषि, शिल्पकला, विद्या व वाणिज्य इन षट्कर्मों को देने [सिखाने] वाले, मुनि अवस्था में घाति कर्मों का घात करने वाले तथा जीवों के रक्षक, कैवल्य अवस्था में प्रथमेश, ब्रह्मा, चतुर्मुख, शिव, विष्णु, गणेश आदि नामों से पूजित प्रथम जिनेन्द्र श्री ऋषभजिन अर्थात् आदिनाथ भगवान को मैं सम्यक् रूप से वन्दन करता हूँ। सायाराणायार-वदादि धम्मो, जेणप्पणीदं रयणत्तयं च। बंभा अहिंसा य लोगस्सपुजं, वंदामि सम्मं उसहं जिणिंदं ॥6॥ अन्वयार्थ-(जेण) जिनके द्वारा (सायार) सागार (अणायार) अनागार (वदादि धम्म) व्रतादि धर्मों का (रयणत्तयं) रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र का (य) तथा (अहिंसा) अहिंसा ही (लोगस्स पुज्ज) लोक पूज्य (बंभा) ब्रह्मा है [ऐसे] (पणीदं) प्रतिपादन किया गया (तं) उन (उसहं जिणिंदं) ऋषभ जिनेन्द्र को (हं) मैं (वंदामि) वन्दन करता हूँ। अर्थ-जिनके द्वारा सागार अर्थात् गृहस्थ व अनागार अर्थात् मुनिपद के योग्य व्रतादि धर्मों का, रत्नत्रय अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का तथा अहिंसा ही श्रेष्ठ पवित्र धर्म है, ब्रह्मा है, ऐसा प्रतिपादन किया गया, उन प्रथम जिनेन्द्र श्री ऋषभजिन अर्थात् आदिनाथ भगवान को मैं सम्यक् रूप से वन्दन करता हूँ। दोसादु मुत्तं च कल्लाणजुत्तं, सण्णाण-पुण्णंच अण्णाण-रित्तं। केलास-सेलादु मोक्खं तु पत्तं, वंदामि सम्मं च आदिस्सरं तं॥7॥ अन्वयार्थ-(दोसादु मुत्तं) सम्पूर्ण दोषों से मुक्त (कल्लाणजुत्तं) कल्याण युक्त (सण्णाण-पुण्णं) सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण (अण्णाण-रित्तं) अज्ञान से रहित (च) और (केलास-सेलादो) कैलाश पर्वत से (मोक्खं तु पत्तं) मुक्ति को प्राप्त (च आदिस्सरं तं) आदीश्वर जिनेन्द्र को [मैं] (सम्म) सम्यक् रूप से (वंदामि) वन्दन करता हूँ। अर्थ-जन्म, जरा, राग-द्वेषादि सम्पूर्ण दोषों से मुक्त, कल्याण युक्त, सम्यग्ज्ञान से परिपूर्ण, अज्ञान आदि विभावों से रहित और कैलाश पर्वत से मुक्ति को प्राप्त प्रथम जिनेन्द्र श्री आदिनाथ भगवान को मैं सम्यक् रूप से वन्दन करता हूँ। (यह दोधक छन्द है) रोगा समंती पसमंति बाही, सोगा यणस्संति खीणंति आही। घोरोवसग्गं च हरेदि थोत्तं, वंदामि तं हं उसहं जिणिंदं॥8॥ अन्वयार्थ-[जिनके दर्शन] से (रोगा समंति) रोग शमन हो जाते हैं (बाही) शारीरिक बीमारियाँ (पसमंति) प्रशमित हो जाती हैं (सोगा) शोक (णस्संति) नष्ट उसहजिण-त्थुदी :: 33
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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