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________________ भावार्थ-क्रोध व मान कषाय संयुक्त, माया व लोभ से विडंबना को प्राप्त जीव जिनदेव के द्वारा कहे गये आत्महित को नहीं जानते। तब वे कल्याण कैसे कर सकते हैं। मान किसका रहा कस्स माणो हि संसारे, जंतु-संघ-बिडंबगे। जत्थ जीवा णिवो होत्ता, बिट्ठामझे किमी हवे॥29॥ अन्वयार्थ-(जंतु-संघ -बिडंबगे) जीवसमूह की विडंबना करने वाले (संसारे) संसार में (कस्स माणो हि) किसका मान रहा (जत्थ जीवा णिवो होता) जहाँ कि जीव नृप होकर (बिट्ठा मज्झे किमी हवे) विष्टा में कृमि हो जाता है। भावार्थ-जीव समूह की विडंबना करने वाले संसार में वस्तुतः किसका मान रहा, जहाँ कि जीव राजा होकर विष्टा (मल) में कृमि हो जाता है। ___ जीवन उसी का सार्थक है धम्मज्झाणं धणं जेसिं, सहलं तेसिं जीविदं। धम्मज्झाणादु हीणाणं, किं धणेणं च आउसा ॥30॥ अन्वयार्थ-(धम्मज्झाणं धणं जेसिं) धर्मध्यान ही जिनका धन है (सहलं तेसिं जीविदं) उनका जीवन सफल है (धम्मज्झाणादु हीणाणं) धर्मध्यान से रहित मनुष्यों के (किं धणेणं च आउसा) क्या तो धन से होगा और क्या आयु से। भावार्थ-धर्मध्यान ही जिनका धन है, उनका जीवन सफल है, धर्मध्यान से रहित मनुष्यों के क्या तो धन से लाभ और क्या आयु से? संक्लेशयुक्त जीवन से मरना भला वरं पाण-परिच्चागो, संकिलिट्ठादु जीविदा। मरणे खणिगं दुक्खं, भावभंगे पदे-पदे ॥31॥ अन्वयार्थ-(संकिलिट्ठादु जीविदा) संक्लिष्टता के जीवन से (पाण परिच्चागो) प्राण परित्याग (वरं) श्रेष्ठ है (मरणे खणिगं दुक्खं) मरने में तो क्षणिक दुःख होता है, जबकि (भावभंगे पदे-पदे) भावभंग होने पर पद-पद पर दुःख होता है। भावार्थ-संक्लिष्टता अर्थात् पाप व दु:खयुक्तता, संक्लिष्ट जीवन जीने की अपेक्षा मर जाना भला, क्योंकि ऐसा अज्ञानपूर्ण जीवन निरर्थक है। मरने पर तो क्षणभर को ही दुःख होता है, जबकि अज्ञानवश कषायादि से युक्त जीवन में पल पल भावभंग (आत्मअशुद्धि) रूप दु:ख होता है। णियप्पज्झाण-सारो :: 313
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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