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________________ रूपातीत निरंजन सिद्धस्वरूप का ध्यान करना रूपातीत संस्थान विचय धर्मध्यान कहलाता है। पिंडस्थ ध्यान के भेद पुढवी तेज- वाऊ य, वारुणी तच्च धारणा । पंचविहं च पिण्डत्थं, णियझाणत्थं भासिदं ॥7 ॥ अन्वयार्थ – (पुढवी तेज- वाऊ य, वारुणी तच्च - धारणा ) पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल तथा तत्त्वरूपवती धारणा के भेद से (पिण्डत्थं) पिंडस्थ ध्यान (पंचविहं) पाँच प्रकार का (अप्पझाणत्थ - भासिदं) आत्मध्यान के प्रयोजन से कहा गया है। भावार्थ- पृथ्वी, अग्नि, वायु जल तथा तत्त्वरूपवती धारणा के भेद से धारणा के पाँच भेद बताये गये हैं । इसको साधते हुए क्रमशः आत्मध्यान साधना चाहिए । ध्यान से आत्मा की परमात्मता जहा लोहो सुवण्णत्तं, पावदि जोग्ग-जोगदो । अप्पज्झाणादि जोगेण, अप्पा परमप्पा हवे ॥8 ॥ अन्वयार्थ - (जहाँ लोहो ) जैसे लोहा (जोग्गजोगदो) योग्य योग से (सुवण्णत्तं) स्वर्णता को (पावदि) प्राप्त करता है ( उसी प्रकार ) ( अप्पज्झाणादि जोगेण) आत्मध्यान आदि योग से (अप्पा परमप्पा हवे) आत्मा परमात्मा हो जाता है। भावार्थ - जैसे योग्य संयोग मिलने पर लोहा भी सोना हो जाता है, वैसे ही आत्मध्यान आदि योग से आत्मा परमात्मा हो जाता है । आत्मा का स्वरूप वण्ण-ठाणादि-हीणं च, कम्म-णोकम्मं वज्जिदं । णाणादिगुणजुत्तं च, पिं चिंत हो ॥१ ॥ - अन्वयार्थ – (वण्ण-ठाणादि हीणंच) वर्ण और गुणस्थान आदि से रहित (कम्म-णोकम्मं वज्जिदं) कर्म - नोकर्म वर्जित ( णाणादिगुणजुत्तं च ) तथा ज्ञानादि गुणयुक्त (णियप्पं) आत्मा का (बुहो) बुद्धिमान (चिंतदे) चिंतन करता है । भावार्थ - वर्णादि और गुणस्थानादि से रहित, कर्म और नोकर्म से वर्जित तथा ज्ञान आदि अनंतगुणों से सहित निजात्मा का बुद्धिमान चिंतन करते हैं । आत्म चिंतन से लाभ छुहा-माण - भयक्कोहा, माया लोहा य मूढदा । णिद्दा कामो य ईसादि, णस्संति अप्प - चिंतणे ॥10 ॥ णियप्पज्झाण- सारो :: 307
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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