SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कपड़े पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता। यदि योग व कषाय भावों के त्यागरूप यह कार्य सिद्ध हो गया, तो संवर, निर्जरा व मोक्षादि कार्य स्वयं सिद्ध हो जाएँगे । भूत-भविष्य नहीं, वर्तमान में जियो आदा! गदं ण चिंतह, अणागदं वि णो किंचि चिंतेज्जा । णाम भावेसु य, रमेज्ज णिच्चं विगद - संकप्पा ॥90 ॥ अन्वयार्थ - (आदा!) हे आत्मन् ! ( गदं ण चिंतह) गए हुए की चिंता न करो ( अणागदं वि णो किंचि चिंतेज्जा) भविष्य की भी किंचित् चिंता मत करो (य) और (विगद संकप्पा) संकल्परहित होकर ( णाणमए भावेसु) ज्ञानमय भाव में ( णिच्चं ) नित्य (रमेज्ज) रमण करो । अर्थ - हे चैतन्य ! बीते हुए की चिंता मत करो, भविष्य की भी कुछ चिंता न करो अपितु संकल्प रहित होकर ज्ञानमय निजभावों में नित्य रमो । व्याख्या - जो बीत गया वह सपना है, जो भविष्य है वह कल्पना है; एक वर्तमान समय ही अपना है। क्योंकि बीते हुए काल में जो कुछ हो चुका है, उसमें कुछ भी फेरफार नहीं किया जा सकता है। भविष्य की सिर्फ योजनाएँ बनाई जा सकती हैं, होगा वहीं जो द्रव्य - क्षेत्र - कालादि की अपेक्षा रखते हुए निमित्त - नैमित्तिक सम्बंध होंगे। किन्तु वर्तमानकाल की एक समयवर्ती जो पर्याय है, वह हमारे हाथ में है; उसमें हम जैसे चाहे वैसे भाव करके भविष्य में भी परिवर्तन कर सकते हैं। इसलिए भूत का कभी जिक्र न करो, भविष्य की फिक्र न करो; और वर्तमान को नष्ट न करो । भूतकाल की वैराग्यप्रद, आत्मकल्याणकारी वस्तु अथवा व्यक्तियों का, अपनी दीक्षा काल की आत्मपरिणति का अथवा शुभसंयोगों का स्मरण भी उचित है। भविष्य की श्रेष्ठ भावनाएँ, आत्मकल्याण की उत्कृष्ट योजनाएँ भी निषेधनीय नहीं हैं। यहाॅ तो व्यर्थ के संकल्प-विकल्प त्याग कर ज्ञानमय निजभावों में नित्य रमण करने की प्रेरणा दी गयी है। इच्छा ही आकुलता है पंचेंदियविसयाणं, जा इच्छा सा हि अत्थि वाउलदा । वाउलदा चिय दुक्खं तत्तो खेदं वा आयरदि ॥91 ॥ अन्वयार्थ— (पंचेंदियविसयाणं जा इच्छा) पंचेन्द्रिय विषयों की जो इच्छा है (सा हि वाउलदा अत्थि) वह ही व्याकुलता है (वाउलदा चिय दुक्खं) व्याकुलता ही दुःख है (तत्तो) उससे (खेदं वा ) खेद अथवा हर्ष (आयरदि) आचरण करता है। अर्थ — पंचेन्द्रिय-विषयों की जो इच्छा है, वह व्याकुलता है और व्याकुलता - ही दुःख है, उससे यह जीव खेद या हर्षरूप आचरण करता है । 296 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy