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________________ वस्तुतः सभी जीव निर्दोष हैं सव्वे वि हि णिद्दोसा, जीवा संति अणंत-गुणजुत्ता। किंतु य कम्मवसेहिं, कुणंति मोहेण कम्माणि ॥29॥ अन्वयार्थ-(हि) वस्तुतः (सव्वे) सभी (जीवा) जीव (णिद्दोसा) निर्दोष हैं (य) और (अणंत गुणजुत्ता संति) अनंत गुण युक्त हैं (किंतु) किन्तु (कम्मवसेहिं) कर्मों के वश से (मोहेण) मोह से (कम्माणि) कर्मों को (कुणंति) करते हैं। अर्थ-वस्तुतः सभी जीव निर्दोष हैं और अनंतगुण युक्त हैं, किन्तु कर्मों के वशवर्ती होकर मोह से नए कर्म करते हैं। व्याख्या-शुद्ध निश्चय से एकेन्द्रियादि समस्त जीव निर्दोष व अनंत गुण वाले हैं, किन्तु कर्मों की अनादि संतति के वशवर्ती होकर मोह (मिथ्यात्व) से अनेक तरह के कर्म करते हैं एवं उनका फल भोगते हैं। स्व-स्वरूप के बोध बिना यह जीव उसी प्रकार दु:खी है, जिस प्रकार किसी के पास चिंतामणि रत्न हो और वह अज्ञानतावश भीख मांगता फिरे। 'निर्दोषोऽहम्।' ___ क्रोधादि भाव आत्मा के शत्रु हैं कोहादिणो जे भावा, परस्स किंविय करेंति णो घादं। अत्तणो चेव सत्तू, णच्चा मुंचेसु सण्णाणी! ॥30॥ अन्वयार्थ-(सण्णाणी) हे संज्ञानिन् ! (जे) जो (कोहादि भावा) क्रोधादि भाव हैं [वे] (परस्स) पर वस्तु का (किंवि) कुछ भी (घादं) घात ( णो करेंति) नहीं करते (य) किन्तु (अत्तणो चेव सत्तू) आत्मा के ही शत्रु हैं [ऐसा] (णच्चा) जानकर [इन्हें] (मुंचेसु) छोड़ो। ____अर्थ-हे सम्यग्ज्ञानी! जो क्रोधादि भाव हैं, वे पर पदार्थों का कुछ भी घात नहीं करते अपितु आत्मा के ही शत्रु हैं, ऐसा जानकर उन्हें छोड़ दो।। व्याख्या-हे सम्यग्ज्ञानधारी महानुभाव! क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुंवेद, नपुंसकवेद आदि के जो भी भाव हैं, वे सभी आत्मा के ही विभाव परिणाम हैं, जो कि कर्मों से उत्पन्न हुए हैं। । वस्तुतः ये जीव के शुद्धभाव नहीं हैं, किन्तु इन्हें अपना मानता हुआ यह जीव नए-नए कर्मों का आस्रव-बंध करता हुआ, निज का ही घात करता है। परवस्तु यदि अचेतन है, तब तो यह उसका कुछ भी नहीं कर सकता; किन्तु यदि चेतन है तो भी उसका बिगाड़ या सुधार उसके भावों से होगा। यह जीव तो सिर्फ निमित्त बनेगा। इसलिए इन विभाव भावों को आत्मा का अहितकारी जानकर छोड़ देना चाहिए। 'क्रोधादिवर्जितोऽहम्'। अज्झप्पसारो :: 265
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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