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________________ रागादि भावों का त्याग करो वेरग्गो बहिरादो, वट्टदि रागो दु अंतरे बहुलं । भस्साछाइय अग्ग व, णाणि ! णाऊण तं मुंच ॥ 22 ॥ अन्वयार्थ – (वेरग्गो बहिरादो) बाहर से वैराग्य है (दु) किन्तु (अंतरे बहुलं ) भीतर में बहुत (रागो) राग (वट्टदि ) वर्तता है [ तो यह ] ( भस्साछाइय अग्गि व ) भस्माच्छादित अग्नि के समान ( णाणि) हे ज्ञानी (णाऊण) जानकर ( तं मुंच) उसे छोड़ो। अर्थ — हे ज्ञानी! यदि बाहर से वैराग्य प्रकट किया जाता है; किन्तु अंतर में बहुत राग वर्तता है; तो यह भस्माच्छादित अग्नि के समान हानिकारक है । अत: इसे जानकर छोड़ो। व्याख्या - हे ज्ञानी ! बाह्यवस्तुओं के त्याग तथा बाहिरी संयत चेष्टा से बाहर से तो वैराग्य झलकता है, तू अपने को वैरागी प्रदर्शित करता है, किन्तु अंतरंग (भावों) में पर-सम्मेलन, पूजा-प्रतिष्ठा, धन-वैभव के प्रति बहुत राग विद्यमान है तो इसे भस्माच्छादित आग के समान समझो। यह आग कभी भी सम्पूर्ण संयम और बाह्य वैराग्य रूपी संपत्ति को जलाकर राख कर देगी । अतः इसे भली प्रकार जानकर छोड़ दो। विशुद्ध अंतरंग - बहिरंग वैराग्य प्रगट करो । 'अंतः बाह्यवैराग्यसंपन्नोऽहम् ।' वैराग्य रहित कौन है कोही माणी माई, लोही रागी तहेव ईसालू । रुद्दो खुद्दो दुट्ठो, जीवो वेरग्ग उम्मुक्को ॥23॥ अन्वयार्थ – (कोही माणी माई लोही रागी) क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, - रागी (रुद्दो खुद्दो दुट्ठो) रुद्र, छुद्र व दुष्ट ( तहेव) उसी प्रकार ( ईसालू) ईर्ष्यालु (जीवो) जीव (वेरग्ग उम्मुक्को) वैराग्य से रहित है । अर्थ - अत्यन्त क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, रागी, रुद्र, छुद्र, दुष्ट तथा ईर्ष्यालु जीव वैराग्य से रहित है । व्याख्या - जिसमें अनंतानुबंधी कषाय विद्यमान है, ऐसा जीव स्वरूप बोध के बिना, आत्मज्ञान के अभाव में वैभाविक भावों से एकमेक होकर अत्यन्त क्रोधी होता है। सबसे सम्मान चाहने वाला, किन्तु ज्येष्ट गुणीजनों का भी सम्मान न करने वाला, ख्याति पूजा प्रतिष्ठा की तीव्र लालसा रखने वाला मानी है । छल-कपट करने वाला मायावी है। धन, पद, वैभव की तृष्णा रखने वाला लोभी है। स्त्री, धन, शिष्यादि में अतिस्नेह करने वाला रागी है । अत्यन्त क्रूर कर्म करने / करवाने वाला रुद्र है। छोटी-छोटी सी बातों को लेकर विषाक्त वातावरण बनाने वाला छुद्र है। दूसरे के दोष ही देखने वाला, दूषित मन वाला दुष्ट है। किसी का उत्थान न देख सकने अज्झप्पसारो :: 261
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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