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________________ छोड़कर आकिंचन्य धर्म को ही भाओ। व्याख्या-यह वस्तु मेरी है अथवा यह वस्तु तेरी है तथा जगत का किंचित मात्र भी पदार्थ मेरा है, ऐसी भावना छोड़कर अपने ज्ञायक आकिंचन्य स्वरूप की ही भावना करना चाहिए। आचार्य गुणभद्र ने आत्मानुशासन में कहा है अकिंचनोऽहमित्यास्व, त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः । योगिगम्यं तव प्रोक्तं, रहस्यं परमात्मनः॥10॥ अर्थात् मैं अकिंचन्य हूँ (मैं किसी का नहीं और कोई मेरा नहीं) ऐसी भावना करने से त्रैलोक्याधिपति हो जाते हैं। यह योगीगम्य परमात्मा का रहस्य तुमको कहा है। समयसार में कहा है परमाणु मेत्तयं पि हु, रागादीणं तु विजदे जस्स। ण वि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागम धरो वि॥201॥ अर्थात् जिसके परमाणु मात्र भी राग विद्यमान है, वह सम्पूर्ण आगम का धारी होने पर भी आत्मा को नहीं जानता। अतः अपने ज्ञायक, एक, अखंड, चिन्मात्र स्वरूप को समस्त परद्रव्यों से पृथक अनुभव करना चाहिए। अकिंचनोऽहम्' 162 ।। ब्रह्मचर्य धर्म इत्थीए सव्व-अंगाई, पेच्छंतो वि ण मुज्झदे। सो बंभचेरभावो य, अप्परूवे ट्ठिदो सुही ॥63 ॥ अन्वयार्थ-(इत्थीए सव्व-अंगाई पेच्छंतो वि) स्त्री के सर्व अंगों को देखते हुए भी [जो] (ण मुज्झदे) मोहित नहीं होता (सो) वह (अप्परूवे) आत्मरूप में (ट्ठिदो) स्थित (सुही) सुधी (बंभचेर भावो) ब्रह्मचर्य भाव वाला है। अर्थ-स्त्री के सभी अंगों को देखता हुआ भी जो मोहित नहीं होता है, वह आत्मरूप में स्थित सुधी ब्रह्मचर्य भाव युक्त है। व्याख्या-आत्मतत्त्व के बोध से जो सभी जीवों को देहदृष्टि से नहीं देखता है, वह कदाचित् स्त्री के सुदंर अंगोपांग युक्त शरीर को देख भी ले तो भी मोहित नहीं होता। अध्यात्मक्षेत्र में क्या, लौकिक क्षेत्र में क्या, सर्वत्र ब्रह्मचर्य (संयम) को प्रधानगुण माना जाता है। व्यभिचारी नही अपितु ब्रह्मचारी सर्वत्र सम्मान्य होता है। कातंत्ररूपमाला में 'ब्रह्मचारी को सदा पवित्र माना है (ब्रह्मचारी सदा शुचिः)।। मन, वचन, काय से स्त्री सेवन का त्याग करना ब्रह्मचर्य है। आत्मस्वरूप में रमण करना, तल्लीन होना अथवा स्त्रियों को माँ, बहिन, पुत्री तुल्य समझना ब्रह्मचर्य है। कुल मिलाकर परभावों से उपयोग हटाकर निज में स्थिर होना ही ब्रह्मचर्य है। 238 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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