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________________ तथा मनुओं की संतति है, उसे मनुष्य कहते हैं । जिसमें मनन करने की शक्ति नहीं है, वह तो पशुतुल्य है। सही मनन करने से जीवन में संयम आता ही है। जो उचितअनुचित को न जानकर कैसी भी प्रवृत्ति करे उसे मनुष्य कैसे कहा जा सकता है। एक प्रसिद्ध नीति है येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो धर्मः । मर्त्यलोके भुवि भार भूताः, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ अर्थात् जिनमें न विद्या है, न तप है, न दान है, न ज्ञान है, न शील है, न गुण हैं और न ही धर्म है, वे मर्त्यलोक में पृथ्वी के भार के समान मनुष्यरूप में ही हैं। अतः जीवन में संयम तो होना ही चाहिए। 'संयमस्वरूपोऽहम् ' ॥59 ॥ पशु तप धर्म कम्ममल-विणासस्स, णाणिणा कीरदि तवं । बज्झं तवं च काएण, मणो रोहो अभिंतरं ॥160 ॥ अन्वयार्थ – (कम्ममलं विणासस्स) कर्ममल विनाश के लिए ( णाणिणा कीरदि तवं ) ज्ञानियों के द्वारा तप किया जाता है, [ वह ] ( बज्झं तवं च कारण) बाह्य तप काय से (च) और (मणो रोहो अभिंतरं ) मननिरोध भीतरी तप है । अर्थ - कर्ममल विनाश के लिए ज्ञानियों के द्वारा तप किया जाता है । बाह्य तप शरीर से और अभ्यंतर तप मन के निरोध से होता है । व्याख्या—समस्त परभावों की इच्छा का त्याग कर स्वरूप में प्रतपन करना अर्थात् आत्मस्वरूप में तल्लीन होना, रागादि का लक्ष्य न होना ही उत्तम तप है। सम्यग्ज्ञानी जन ज्ञानावरणादि कर्मों के नाश के लिए जैनशासन में कहे गए सम्यक् तप करते हैं । जिनवाणी में जो तप कहे हैं, वे स्वरूप में तल्लीनता का कारण होने से व्यवहार तप कहे जाते हैं। वस्तुतः इच्छा निरोध ही तप है, जैसा कि आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में कहा है- इच्छा निरोधः तप: ( 913) तप के मुख्यतः दो भेद हैं- 1. बाह्य तप, व 2. अभ्यंतर तप । बाह्य तप मुख्यतः शरीर पर निर्भर करता है, बाहर में दिखता है तथा अन्य मतावलंबी भी इसे करते है, इसलिए यह बाह्य तप कहलाता है । अभ्यंतर तप मुख्यतः मन पर निर्भर करता है, कदाचित बाह्य में दिखता है किन्तु बहिर्जन इसे साध नहीं पाते। वस्तुतः आभ्यंतर तप की वृद्धि के लिए ही बाह्य तप किया जाता है, ऐसा आचार्य समंतभद्र ने स्वयंभू स्त्रोत में कहा है बाह्यं तपः परं दुश्चरमाचरंस्त्वमाध्यात्मिकस्य तपसः परिबृंहणार्थम् । ध्यानं निरस्य कलुष-द्वयमुत्तरेस्मिन, ध्यान- द्वये ववृतिषेऽतिशयोपपन्ने ॥83॥ 236 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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