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________________ क्षमा-धर्म कोहाणले समुप्पण्णे, महादाहो सरीरिणं। णिदहदि तवं वित्तं, जोगी दीवायणादि व 154॥ अन्वयार्थ-(कोहाणले समुव्वण्णे) क्रोधाग्नि के उत्पन्न होने पर (सरीरिणं) शरीरधारियों को (महादाहो) महादाह होती है [वह क्रोधाग्नि] (जोगी दीवायणादि व) योगी द्वीपायन के समान (तवं वित्तं) तपरूपी धन को (णिद्दहदि) जला देती है। अर्थ-क्रोधाग्नि के उत्पन्न होने पर शरीरधारियों को महादाह उत्पन्न होती है, वह क्रोधाग्नि योगी द्वीपायन की तरह तपरूपी धन को जला देती है। व्याख्या-क्रोध कषाय को आग की उपमा दी गयी है। जिस प्रकार आग सन्ताप पैदा करती है, उसी प्रकार क्रोध रूपी आग से भी सन्ताप पैदा होता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि एक मिनिट के क्रोध करने से मनुष्य के बारह घंटे कार्य करने जितनी शक्ति (खून) नष्ट हो जाती है। ___ क्रोधी मनुष्य राक्षस जैसा दिखता है। बड़ी-बड़ी लाल आँखे, फड़कते होंठ, काँपते हाथ-पैर, धधकता चेहरा और कुछ भी शब्दों का उच्चारण करता हुआ क्रोधी, अपने वश में भी नहीं रहता। कभी तो क्रोधी अपनी ही हानि तथा आत्महत्या तक कर लेते हैं। द्वैपायन मुनि का उदाहरण आगम में प्रसिद्ध है कि उन्होंने यादवों के उत्पातों से परेशान होकर भयंकर क्रोध किया, जिससे उनके शरीर से अशुभ तैजस (शक्ति) निकला और उसने धन-जन सहित बारह योजन विस्तृत द्वारिका को जला डाला। बाद में उनका देह भी उसी तैजस से भस्म हो गया और उनकी दुर्गति हुई। जब तक जीव अपने क्षमागुण को नहीं जानता, क्रोध को कर्मों की उपज नहीं मानता तब तक जीवन में क्षमाधर्म नहीं आ सकता। अपने क्षमास्वरूप को जानते ही अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ कषाएँ तत्क्षण नष्ट हो जाती हैं, फिर अप्रत्यख्यान व संज्वलन भी धीरे-धीरे नष्ट हो जाती हैं। अतः अपने क्षमास्वरूप का लक्ष्य करना चाहिए, यही उत्तम क्षमा है। 'क्षमाधर्मसहितोऽहम्' ॥54 ॥ मार्दव धर्म को अत्थो बहुमाणेण, णीचत्तणं वि भुंजिदं। उच्चत्तं हि अणिच्चं च, णीचत्तं णावि सुट्ठिदं ॥55॥ - अन्वयार्थ-बहुतमान से क्या प्रयोजन है। [क्योंकि इस जीव ने](णीचत्तणं वि भुंजिदं) नीचत्व भी भोगा है (उच्चत्तं हि अणिच्चं) उच्चत्व निश्चित ही अनित्य है (च) और (णीचत्तं णावि सुट्ठिदो) नीचत्व भी सुस्थित नहीं है। अर्थ-यहाँ पर बहुत सम्मान मिले तो भी क्या प्रयोजन है? क्योंकि इस जीव 232 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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