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________________ (दर्शनपाहुड) __ अतः आत्महितेच्छुओं को सब प्रकार का असंयम छोड़कर संयम में प्रवृत्ति करना चाहिए। क्योंकि असंयम सांसारिक दुःख का कारण है,जबकि संयम से स्वर्ग व मोक्ष प्राप्त होता है। संयम से जीवन में आनंद झरता है। 'संयमस्वभावसहितोऽहम् ' 150॥ किसी को तुच्छ मत समझो एगेंदियादि जीवे य, मा तुच्छे मण्ण सज्जणा। अप्पा सव्वेसु जीवेसु, णिवसेदि गुणी सदा ॥51॥ अन्वयार्थ-(सजणा) हे सजनों! (एगेदियादि जीवेय) एकेन्द्रिय आदि जीवों को (तुच्छे) तुच्छ (मा) मत (मण्ण) मानो [क्योंकि] (सव्वेसु जीवेसु) सभी जीवों में (गुणी) गुणवान (अप्पा) आत्मा (सदा) हमेशा (णिवसन्ति) निवास करता है। अर्थ-हे सज्जनों! एकेन्द्रियादि जीवों को तुच्छ मत मानो, क्योंकि सभी जीवों में गुणवान आत्मा सदा निवास करता है। व्याख्या-भो ज्ञानियों! संसार के छोटे से छोटे जीव को भी हीन मत समझो। क्योंकि शरीर छोटा-बड़ा होने से आत्मा के स्वभावभूत गुण कम- ज्यादा नहीं हो जाते। एकेन्द्रियादि सभी पर्यायों में द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक स्वतंत्र-स्वतंत्र आत्मा अपने अनंत गुणों सहित विराजित है। भगवती आराधना टीका में उल्लेख आता है कि 923 जीव नित्यनिगोद से निकलकर भरत चक्रवर्ती के पुत्र होकर आदिनाथ भगवान से दीक्षा लेकर उसी भव से मोक्ष चले गए। अब वह सिद्ध भगवान हैं। निगोदिया जैसी हीन पर्याय से निकल उन्होंने सिद्धावस्था प्राप्त कर ली। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने इष्टोपदेश में कहा योग्योपादान योगेन, दृषदः स्वर्णता मता। द्रव्यादि स्वादि संपत्ता, वात्मनोप्यात्मता मता ॥2॥ अर्थात् जैसे योग्य उपादान के योग से स्वर्ण पाषाण में स्वर्णता मानी गयी है, वैसे ही स्वद्रव्यादि चतुष्टय के योग से आत्मा में परमात्मता मानी गयी है। हे आत्मन्! अभी जीव पर्यायों में कैसे भी परिणमन कर रहे हों, पर हैं तो बीजभूत सिद्धात्मा। अत: आलू-मूली से लेकर सभी जीवों पर दया करो। उनमें कई ऐसे जीव हो सकते हैं, जो तुमसे पहले मोक्ष चले जाएंगे। संसार में ऐसे अनेक जीव हो गए हैं, जिनसे हमारे शत्रुता-मित्रता, पत्नी-पुत्रता आदि के सम्बन्ध रहे, किन्तु वे भावणासारो :: 229
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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