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________________ ममत्व धारण करता हुआ परद्रव्यों में आसक्त होता है। उनके अनुकूल-प्रतिकूल परिणमित होने पर सुख-दुःख का वेदन करता है। देहादि के नाश को स्वयं का नाश मानता है। निज शाश्वत स्वरूप की इसे किंचित भी चिंता नही, समझ नहीं।। किन्तु, जैसे योग्य शिल्पी के परामर्श से पत्थर के बीच में पटकी हुई छैनी से पत्थर मूर्ति का रूप ले लेता है, वैसे ही आत्मार्थी सच्चे गुरुओं के उपदेश से प्रज्ञारूपी छैनी के बल से यह बहिरात्मा देह व आत्मा को पृथक-पृथक करके अंतरात्मा तथा परमात्मा होता है। आत्मा की ये तीन अवस्थाएँ समाधितन्त्र में भी बताई हैं बहिरन्तः परश्चेति, त्रिधात्मा सर्वदेहिषु। उपेयात्तत्र परमं, मध्योपायाद् बहिस्त्यजेत् ॥4॥ अर्थात् बहिरात्मा, अन्तरात्मा तथा परमात्मा ये तीन प्रकार की आत्माएँ सर्वदेहधारियों में कही गयी हैं। उनमें परमात्मा उपादेय है, अंतरात्मा उपाय है तथा बहिरात्मा त्याज्य है। ___आचार्य कुन्दकुन्द देव ने समयसार (296) में कहा है कि प्रज्ञारूपी छैनी के बल से जीव व बंध के लक्षणों को जानकर दोनों को पृथक करना चाहिए। फिर आगे शिष्य के यह पूछने पर कि 'आत्मा को कैसे ग्रहण करना?' तो उत्तर में कहा है कि जैसे प्रज्ञारूपी छैनी से दोनों को अलग किया है, वैसे ही प्रज्ञा से ग्रहण करना चाहिए। प्रज्ञारूपी छैनी से ही आत्मा-अनात्मा को अलग किया जाना संभव है, अन्य कोई मार्ग नहीं। 'प्रज्ञाछेत्री सहितोऽहम् ॥42 ॥ आत्मध्यान किसे होता है णिक्कसायस्स दंतस्स, सूरस्स समभाविणो। संसार भयभीदस्स, अप्पज्झाणं सुहं हवे ॥43 ॥ अन्वयार्थ-(णिक्कसायस्स) निष्कषाय (दंतस्य) इन्द्रियों को जीतने वाले (सूरस्स) धैर्यवान, (समभाविणो) समभावी [तथा] (संसार भयभीदस्स) संसार से भयभीत के (अप्पज्झाणं) आत्मध्यान [और] (सुहं) सुख (हवे) होता है। अर्थ-निष्कषाय, इन्द्रियों को जीतने वाले, धैर्यवान, समभावी तथा संसार से भयभीत साधक के आत्मध्यान और सुख होता है। व्याख्या-भेदविज्ञान के बल से कषायों को अपने स्वरूप से पृथक् जानकर जो निष्कषाय हुआ है, ज्ञानस्वभाव को इन्द्रियों से अधिक जानकर जिसने इन्द्रियों पर विजय प्राप्त की है, धैर्यवान, प्रत्येक स्थिति में साम्यभाव धारण करने वाले समभावी तथा संसार, शरीर, व भोगों से विरक्त अथवा जन्म, मरण व बुढ़ापा रूप संसार की दशाओं से भयभीत महानुभाव के आत्मध्यान होता है। बृहद्रव्य संग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र ने ध्यानकर्ता का लक्षण इस प्रकार लिखा है222 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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