SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 220
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्वयार्थ-(णिगोदे) निगोद में (वियलेसु) विकलत्रयों में (य) तथा अन्य पर्यायों में [इस जीव निश्चित ही] (अणंतिमो) अनंत (कालो) काल (गदो) बीत गया [पर इसने] (सुकुलं माणुसत्तं) सुकुल मानुषत्व (च) और (दुल्लभा) दुर्लभ (बोहि) बोधि को (ण) नहीं (पत्तं) पाया। अर्थ-निगोद में, विकलत्रयों में तथा अन्य पर्यायों में इस जीव का निश्चित ही अनंत काल बीत गया, पर इसने सुकुल, मानुषत्व और बोधि को नहीं प्राप्त किया। __व्याख्या सामान्यतः ज्ञान को बोध कहते है तथा विशेषतः भेद-विज्ञान को बोधि कहते है। ज्ञान और भेदविज्ञान में बड़ा अंतर है। ज्ञान तो संसार के समस्त जीवो में हीनाधिक रूप में रहता ही है, क्योंकि ज्ञान जीव का स्वभाव (लक्षण) है। किन्तु भेदविज्ञान पंचेन्द्रिय संज्ञी भव्य विवेकी जीवों को ही होता है। भेद-विज्ञान होने का अर्थ है सम्यग्दर्शन की प्राप्ति। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से जीव का संसारसागर चुल्लू भर बचता है। बोधिलाभ सम्यग्दर्शन से भी आगे की बात है। बोधि का अर्थ है-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय की प्राप्ति। रत्नत्रय की आराधना कर जीव थोड़े ही भवों में संसार से पार हो जाता है। इस प्रकार की बोधि-अत्यन्त दुर्लभ है। वह उपलब्ध कैसे हो? बोधिदुर्लभ भावना में इस बात का विचार किया जाता है। चतुर्गतिरूप संसार के निगोद शरीरों में ही इस जीव का अनंत काल बीता है। निगोद से निकलकर स्थावरों तथा स्थावरों से निकलकर त्रसकायों में जन्म पाना अति दुर्लभ है। आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि (9/7) की टीका में लिखा है कि बालू के समुद्र में गिरी हुई रत्नकणिका को पुनः प्राप्त करना जितना कठिन है, उससे भी कठिन है स्थावरों से निकल कर त्रस होना। त्रसों में पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याय प्राप्त करना, गुणों में कृतज्ञता गुण की प्राप्ति के समान अत्यन्त कठिन है। उसमें भी मनुष्य भव पाना वैसे ही है, जैसे चौराहे पर रखा हुआ रत्नों का ढेर पाना। मानव तन पाकर आर्य देश, व्यवस्थित राज्य, श्रेष्ठ कुल, सांगोपांग निरोग शरीर, तीक्ष्ण बुद्धि, सच्चे देव-शास्त्र-गुरु तथा व्रतों में आदर भाव होना अत्यन्त कठिन है। वीतरागी मुनियों से उपदेश प्राप्तकर व्रत प्राप्त करना दुर्लभ है और व्रत प्राप्त भी हो जाएँ तो उनका निरतिचार पालन होना कठिन है। श्रेणी आरोहण कर केवलज्ञान प्राप्त करना महादुर्लभ है। केवलज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति अनिवार्यतः होती है। आत्मस्वरूप का लक्ष्य रखकर यह सब सिद्ध किया जा सकता है। अत्यन्त सुलभ है निजानुभव, यदि लक्ष्य किया जावे। 'अत्यन्त-सुलभ-स्वरूपोऽहम्' ॥38॥ 218 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy