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________________ आत्मतत्त्व को समस्त विभावों से रहित समझता है। ध्यान-विज्ञान संतुष्टोऽहम् ॥28॥ ज्ञान की महानता णाणजालं वरं णेयं, पंचक्ख मच्छ-बंधणे। णाणसीहो समत्थो हि, कामदंती विघादणे ॥29॥ अन्वयार्थ–(पंचक्ख मच्छ-बंधणे) पंचेन्द्रियरूपी मच्छ को बांधने में (णाणजालं) ज्ञानरूपी जाल को (वरं) श्रेष्ठ (णेयं) जानो, (कामदंती विघादणे) कामरूपी हाथी का घात करने में (णाणसीहो हि) ज्ञानरूपी सिंह ही (समत्थो) समर्थ है। अर्थ-पंचेन्द्रियरूपी मच्छों को बांधने में ज्ञानरूपी जाल श्रेष्ठ जानो तथा कामरूपी हाथी का घात करने में ज्ञानरूपी सिंह ही समर्थ है। __व्याख्या-संसार में परिभ्रमण करते हुए मनुष्य भव पाना अत्यन्त कठिन है। निगोद से निकलकर स्थावर, स्थावरों से त्रस और त्रसों में भी मनुष्य हो पाना अतिदुर्लभ है। मनुष्य भव पाकर भी आर्यक्षेत्र, उत्तम कुल, व्यवस्थित शरीर, श्रेष्ठ बुद्धि और जिनधर्म पाना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। यह मानव तन और व्यवस्थित जीवन पाकर भी यदि इसे विषय-कषायों में खो दिया तो आत्महित कब होगा। आत्मसिद्धि के लिए सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति परम आवश्यक है, क्योंकि ज्ञानरूपी जाल में ही पंचेन्द्रियरूपी मच्छों को फंसाया जा सकता है। अर्थात् ज्ञानस्वरूपी निजात्मा का आलम्बन लेकर ही इन्द्रिय-विषयों के आकर्षण से बचा जा सकता है। इन्द्रियों को जीतने का इससे श्रेष्ठ कोई उपाय नहीं है। समयसार (31) में कहा है कि 'इन्द्रिय विजयी वह है, जो इन्द्रियों को जीतकर अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा को उनसे अधिक जानता है। कामरूपी हाथी का घात करने में ज्ञानरूपी सिंह ही समर्थ है। ज्ञान के अभाव में जबरदस्ती तो हो सकती है, पर विकारों का नाश नहीं हो सकता और जब तक विकारों का अभाव नहीं होता, तब तक कर्मों का संवर भी नहीं होता। आचार्य पूज्यपाद ने समाधितंत्र में कहा है सर्वेन्द्रियाणि संयम्य, स्तिमितेनान्तरात्मना। यत्क्षणं पश्यतो भाति, तत्तत्वं परमात्मनः ॥30॥ सभी इन्द्रियों को संयमित करके, अन्तरात्मा में स्थित होकर जो देखा जाता है, वह परमात्म तत्त्व है। जीव यदि अपने ज्ञानस्वभाव में ही स्थित रहने का प्रयत्न करे तो निश्चित ही संवर होता है। यह ज्ञान अत्यन्त धीर और उदात्त है, जो कि अनादिकाल से अनेक 210 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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