SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्म-बन्धनों को नष्ट न कर डालता? प्रभु से प्रार्थना णिराउलेण धम्मेणं, साहिमाणेण जीविदं। अंते समाहि-मिच्छं च, दाएज णाहिणंदणो160॥ अन्वयार्थ-(णिराउलेण) निराकुलतापूर्वक (धम्मेणं) धर्म युक्त (साहिमाणेण) स्वाभिमान सहित (जीविदं) जीवन (च) और (अंते) अंत में (समाहि-मिच्चुं) समाधिमरणं (णाहिणंदणो) नाभिनन्दन (दाएज) देवें।। भावार्थ-निराकुलता पूर्वक, धर्मयुक्त, स्वाभिमान सहित जीवन और जीवन के अंतिम क्षणों में श्री नाभिनन्दन ऋषभदेव भगवान (मुझे) समाधिपूर्वक/समताभाव सहित मरण प्रदान करें। क्यों रचा नीति संग्रह धम्मत्थकाम-पत्तत्थं, कल्लाणत्थं च मोक्खणं। आयरिय-सुणीलेण, किदो य णीदि-संगहो॥161॥ अन्वयार्थ-(मनुष्यों को) (धम्मत्थकाम-पत्तत्थं) धर्म, अर्थ, काम की प्राप्ति के लिए [निज के] (कल्लाणत्थं) कल्याण के लिए (च) और [दोनों के] (मोक्खणं) मोक्ष के लिए (आयरिय-सुणीलेण) आचार्य सुनीलसागर ने [यह] (णीदि संगहो) नीतियों का संग्रह (किदो) किया है। भावार्थ-सभी मनुष्यों को धर्म, अर्थ, तथा काम की प्राप्ति के प्रयोजन से, अपने (आत्म) कल्याण के प्रयोजन से और सभी भव्य जीवों को मोक्ष प्राप्ति के प्रयोजन से; आचार्य सुनीलसागर मुनि ने यह नीतियों का संग्रह किया है। ॥ इदि आयरिय-सुणीलसायरेण किदो णीदि संगहो समत्तं॥ ॥ इस प्रकार आचार्य सुनीलसागर कृत नीति-संग्रह समाप्त हुआ। 184 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy