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________________ वनराज-सिंह तथा दिवाकर - सूर्य स्वप्न में भी यह नहीं सोचते हैं कि मैं कृष्- दुबला हूँ, असहाय हूँ, सहायक सामग्री से रहित और अकेला हूँ । इसका यह भाव है कि पराक्रमी मनुष्य समय आने पर पराक्रम पूर्ण चेष्टा करते ही हैं। किसी सहयोगी की अपेक्षा नहीं करते। ये देखते नहीं कामी कोही तहा लोही, मज्जपा विसणाउरो । एदे सम्मं ण पसंति, पच्चक्खे वि दिवायरे ॥102 ॥ अन्वयार्थ - (कामी कोही तहा लोही मज्जपा विसणाउरो) कामी, क्रोधी, लोभी, शराबी तथा व्यसनासक्त व्यक्ति (एदे) ये ( पच्चक्खे वि दिवायरे) सूर्य के प्रत्यक्ष होने पर भी ( सम्म) अच्छी तरह (ण पसंति) नहीं देखते हैं । भावार्थ - कामी, क्रोधी, लोभी, शराबी और व्यसनासक्त अर्थात् खोटे आचरण में लगा हुआ मनुष्य, ये सूर्य प्रकाश रहते हुए भी अच्छी तरह नहीं देखते हैं, क्योंकि इनके भीतर विविध प्रकार की वासनाएँ भड़कती रहती हैं, अतः इनसे हमेशा बचना चाहिए । वहाँ निवास नहीं करें जत्थ विज्जागमो णत्थि, धणागमो य बंधू य । सम्माणं तित्थ - वित्तीय, वासं तत्थ करेज्ज णो ॥ 103 ॥ अन्वयार्थ - ( जत्थ) जहाँ (विज्जागमो धणागमो बंधू य सम्माणं तित्थ च वित्तिं) विद्यागम, धनागम, बन्धुजन, सम्मान, तीर्थ और आजीविका ( णत्थि ) न हो (तत्थ) वहाँ (वासं) निवास (णो) नहीं (करेज्ज) करना चाहिए । भावार्थ - जहाँ पर ज्ञान की प्राप्ति, धन की प्राप्ति, बन्धुजनों का संसर्ग, सम्मान, तीर्थ- यात्रा तथा आजीविका के साधन, इनमें से एक भी नहीं हो; वहाँ निवास कभी नहीं करना चाहिए। इनमें से एक-दो का भी यदि भली-भाँति योग हो जाए तो वहाँ निवास किया जा सकता है। शिष्य का लक्षण गुरुभक्तो भवा-भीदो, विणीदो धम्मिगो सुही । संतो- दंतो अतंदालू, सिस्सो हि सहलो हवे ||104 ॥ अन्वयार्थ - ( गुरुभत्तो ) गुरु- भक्त ( भवा-भीदो) संसार से भयभीत ( विणीदो धम्मगो सुही संतो- दंतो अतंदालू) विनीत, धार्मिक, सुधी, शान्त, दान्त [ तथा ] अतंद्रालु (सिस्सो हि) शिष्य ही ( सहलो) सफल (हवे) होता है। 164 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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