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________________ हेतु उपलब्ध हैं। भावनाप्रधान ग्रन्थों की शृंखला में तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागरजी महाराज के योग्यतम शिष्य आचार्य श्री सुनीलसागरजी ने प्राकृतभाषा में 72 पद्यों सहित 'भावणासारो' नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसमें उन्होंने अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधि दुर्लभ और धर्म इन बारह भावनाओं का संक्षिप्त किन्तु सारगार्भित विवेचन किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ मंगलाचरण में सिद्धों की वन्दना के साथ ही ग्रन्थ रचना करने की प्रतिज्ञा की गयी है। ध्यान का प्रभाव, कैसी भावना करनी चाहिए ? तथा भावों का फल प्रस्तुत करने वाले क्रमशः तीन पद्य दिये गए हैं। पश्चात् एक सुन्दर-सी कारिका में धर्म का स्वरूप बताया गया है जो वर्तमान समय में सर्वथा प्रासंगिक है इच्छसि अप्पणत्तो जं, इच्छ परस्स तं वि य । णेच्छसि अप्पणत्तो जं, णेज्छ परस्स धम्मो य ॥ अर्थात् जो अपने लिए चाहते हो, वह दूसरे के लिए भी चाहो और जो अपने प्रति नहीं चाहते हो, वह दूसरे के लिए भी मत चाहो, यही धर्म है। इसके बाद क्रमश: बारह भावनाओं का वर्णन करने में आचार्यश्री ने एक के बाद एक सुन्दर गाथाओं को लिखा । प्रस्तुत ग्रन्थ में अलंकारों का भी खूब प्रयोग किया है । दृष्टान्त अलंकार तो पग-पग पर देखने को मिलता है। नव रसों में से मूलतः शान्त रस का प्रयोग किया है, किन्तु आवश्यतानुसार अनायास ही वीर, रौद्र, वीभत्स, करुण, भय और शृंगार रसों का भी सुन्दर प्रयोग हुआ है । आचार्यवर ने कृति के 72 में से 71 छन्दों में अनुष्टुप छन्द का प्रयोग किया है, अन्तिम गाथा छन्द में है । इस ग्रन्थ में पद्य के साथ ही अन्वयार्थ, अर्थ तथा हिन्दी में विस्तृत व्याख्या भी दी गयी हैं, एवं पृष्ठ नम्बर भी प्राप्त हैं । ग्रन्थ का प्राकृत मनीषी प्रो. उदयचन्द जैन उदयपुर ने सम्पादन किया है। अज्झप्पसारो (अध्यात्मसार ) - सन् 2007 में सृजन की समष्टि को प्राप्त हुआ । इसमें 100 प्राकृत पद्य हैं। नामानुकूल विषय है किन्तु अध्यात्म को बहुत ही सरल ढंग से इसमें प्रस्तुत किया गया है, जिससे अध्यात्म जैसा विषय भी सर्वगम्य हो गया है । यह कृति कृतिकार की अनूठी सृजनधर्मिता की द्योतक है । साहित्यकार की अभिव्यक्ति में काव्य और शास्त्र ये दोनों दृष्टियाँ समाहित होती हैं। शास्त्र में श्रेय रहता है और काव्य में अनुभूतियों का प्रयत्न रहता है। अज्झप्पसारो ग्रन्थ में समयसार जैसी अनुभूतियों का समाकलन किया गया है। णिय अप्पा परमप्पा, अप्पा अप्पम्म अत्थि संपुण्णं । तो किं गच्छदि बहिरे, अप्पा अप्पम्मि सव्वदा झेयो ॥ 27 ॥ चौदह
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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