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________________ अन्वयार्थ-(सोग-सत्तु-भयत्ताणं) शोक, शत्रु तथा भय से रक्षा करना, (पीदी-विस्सास-भायणं) प्रेम, विश्वास का पात्र होना (गुणेहिं जुंजदे णिच्चं) हमेशा गुणों में जोड़ना [ये] (सेट्ठ-मित्तस्स लक्खणं) श्रेष्ठ मित्र के लक्षण हैं। भावार्थ-शोक के आने पर, शत्रुओं से सामना होने पर अथवा अन्य भयों के प्राप्त होने पर साथ रहने वाला, सुरक्षा करने वाला, प्रीति व विश्वास का पात्र तथा जो हमेशा गुणों में जोड़े, ये श्रेष्ठ मित्र के लक्षण हैं। दूरस्थ भी दूर नहीं दूरत्थो वि ण दूरत्थो, जो जस्स हियए ट्ठिदो। हिदयादो य णिक्कं तो, समीवत्थो वि दूरगो॥79॥ अन्वयार्थ (जो जस्स हियए ट्ठिदो) जो जिसके हृदय में स्थित है वह (दूरत्थो वि) दूर होता हुआ भी (ण दूरत्थो) दूर स्थित नहीं है (य) और (हिदयादो) हृदय से (णिक्कंतो) निकला हुआ (समीवत्थो वि दूरगो) पास रहता हुआ भी दूर है। भावार्थ-जो व्यक्ति, वस्तु, भगवान या अन्य कोई पदार्थ जिसके हृदय में बसा हुआ है, वह कितना ही दूर क्यों न हो पर वस्तुतः दूर नहीं है, क्योंकि उसमें मन लगा हुआ है, इसके विपरीत जो व्यक्ति, वस्तु या अन्य पदार्थ हृदय में नहीं है अथवा किसी कारणवश हृदय से निकल गया है, वह पास होता हुआ भी दूर है क्योंकि उसके प्रति कोई लगाव नहीं है। यदि अच्छे सम्बन्ध चाहते हो तो जदि इच्छसि सम्बन्धं, णिम्मलं कलहं विणा। सम्बन्धो धण-धण्णस्स, मुंचह दार-दंसणं॥80॥ अन्वयार्थ-(जदि) यदि (कलहं विणा) कलह रहित(णिम्मलं) निर्मल (सम्बन्धं) सम्बन्ध (इच्छसि) चाहते हो [तो] (धण-धण्णस्य सम्बन्धो) धनधान्य का सम्बन्ध (च) तथा (दार-दंसणं) स्त्री का दर्शन (मुंचह) छोड़ो। भावार्थ-किसी भी व्यक्ति से आप यदि अच्छे सम्बन्ध बनाना चाहते हैं तो इन तीन बातों का अवश्य ध्यान रखो, 1. उससे किसी भी विषय पर कलह मत करो, 2. धन-रुपया-सम्पत्ति, धान्य-अनाज आदि का लेन-देन मत रखो और 3. उसकी स्त्री को खोटी नजर से मत देखो तथा एकान्त में बात मत करो। काल को रोकने वाला कोई नहीं णोवाओ विज्जदे कोवि, णो भूदो णो भविस्सदि। जेण संधिज्जइ कालो, जीवाणं हिंसगो सदा॥81॥ 156 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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