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________________ णस्सेति तक्खणे कित्ती, धिदी सिरी हिरी य धी॥6॥ अन्वयार्थ-(दाएज्ज) दीजिए [यह] (वयणं सोच्चा) वचन सुनकर (कित्ती, धिदी सिरी य धी) कीर्ति, धृति, लक्ष्मी, लज्जा और बुद्धि [ये] (देहट्ठा पंचदेवदा) देहस्थित पाँच देवता (तं खणे) उसी क्षण (णस्सेंति) नष्ट हो जाते हैं। भावार्थ-किसी से कोई वस्तु माँगते समय जब 'दीजिए' यह वचन कहा जाता है तब शरीर में आत्मा के आश्रय से रहने वाले कीर्ति-ख्याति, धृति-धैर्य, लक्ष्मी-श्रीमंतता, ही-लज्जा और धी-बुद्धि ये पाँच देवता (गुण) उसी समय नष्ट हो जाते हैं। अतः किसी से कभी कुछ नहीं माँगना चाहिए। ये मरे के समान हैं जीवंता वि मडा पंच, भासते सयलागमे। दलिदो बाहिओ मूढो, पवासी णिच्च-सेवगो॥०॥ अन्वयार्थ-(दलिदो बाहिओ मूढो पवासी णिच्चसेवगो) दरिद्र, व्याधियुक्त, मूर्ख, प्रवासी, नित्यसेवक [ये] (पंच) पाँच (सयलागमे) सम्पूर्ण शास्त्रों में (जीवंता वि मडा) जीते हुए भी मृत (भासते) कहे गए हैं। भावार्थ-दरिद्र-धनहीन, हमेशा बीमार रहने वाला, अत्यन्त मंद बुद्धि वाला अथवा पागल, प्रवासी-विदेश में रहने वाला तथा हमेशा दूसरों की चाकरी करने वाला, ये पाँच प्रकार के मनुष्य जीवित रहते हुए भी मरे के समान कहे गए हैं। ये अनर्थकारी हैं वेरो वेस्साणरो बाही, वादो वसणलक्खणो। . महाणत्थस्स जायंते, वकारा पंच वज्जिदा71॥ अन्वयार्थ-(वेरो वेस्साणरो बाही, वादो वसणलक्खणो) वैर, वैश्वानर, व्याधि, वाद, व्यसन-शीलता (महाणत्थस्स जायंते) महा अनर्थ के लिए होते हैं [इसलिए] (वकारा पंच वज्जिदा) ये पाँच 'व'कार वर्जित हैं। भावार्थ-वैर-द्वेष भाव, वैश्वानर-अग्नि, बीमारी, वाद-विवाद और व्यसनों में तल्लीनता ये पाँच 'व'कार महा-अनर्थ की जड़ हैं, अत: विवेक-विचार पूर्वक इनका त्याग कर देना चाहिए। इन पाँचों में से एक भी मनुष्य के जीवन को नष्ट कर डालता है। ये पाँचों 'व' अक्षर से प्रारम्भ होते हैं, इसलिए इन्हें पंच-वकार कहा गया है। ये सदा रिक्त रहते हैं जामादा जढरं जाया, जादवेदा जलासओ। पूरिदा व पूरंते, जकारा पंच दुब्भरा ॥2॥ लोग-णीदी :: 153
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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