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________________ को (णमामि) नमन करता हूँ। अर्थ-वात्सल्यमूर्ति, समावयुक्त, करुणापूर्ण, अभयप्रदाता, लोकजनों व तीर्थों का उद्धार करने वाले सन्मार्गदाता आचार्यश्री विमलसागरजी को नमन करता हूँ। सुद्धप्पलीणंतुअलीणदेहं, महातवस्सि उववासजुत्तं। धणं च धण्णं च रसं च चागि, सूरिं हि सम्मइसिंधुंणमामि॥4॥ अन्वयार्थ-[सुद्धप्पलीणंतुअलीणदेहं] शुद्धात्मा में लीन किन्तु देह में अलीन (महातवस्सि) महातपस्वी (उववासजुत्तं) उपवासयुक्त (धणं च धण्णं च रसं च चागि) धन धान्य व रसों के त्यागी (सूरिं सम्मइसिंधुं) आचार्य सन्मतिसागर को (णमामि) नमन करता हूँ। अर्थ-शुद्धात्मा में लीन किन्तु देह में अलीन (विरक्त), महातपस्वी, उपवासयुक्त, धन-धान्य व रसों के त्यागी आचार्य सन्मतिसागर को नमन करता हूँ। सूरिंद-मादिसायर-मुणिंद, महावीर-कित्तिं सण्णाण-चंदं। सूरिं च विमलं समणेहि वंदं, सूरिं णमामि सम्मइ-जइंदं ॥5॥ अन्वयार्थ-(सूरिंदं) आचार्य श्रेष्ठ (आदिसायर मुणिंदं) आदिसागर मुनीन्द्र (सण्णाणचंदं) सम्यग्ज्ञान रूपी चन्द्रमा महावीरकीर्ति (सूरिं विमलं) आचार्य विमलसागर (च) और (समणेहि वंदं) श्रमणों से वंदनीय (सूरिं सम्मइ-जइंदं) आचार्य सन्मतिसागर यतीन्द्र को (णमामि) नमन करता हूं। __ अर्थ-आचार्य श्रेष्ठ आदिसागर मुनीन्द्र, सम्यज्ञान रूपी चन्द्रमा महावीरकीर्ति, आचार्य विमलसागर और श्रमणों के द्वारा वन्दनीय आचार्य सन्मतिसागर यतीन्द्र को मैं नमन करता हूँ। चउ-आयरिय-त्थुदी :: 103
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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