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________________ तिमुत्ति-त्थदी (त्रिमूर्ति - स्तुति, उपजाति - छन्द) आइच्चवण्णं पढमं जिणिंद, छक्कम्मदाया- सिरि-विस्सकम्मं । विहूसिव - णामजुत्तं तं आदिणाहं पणमामि सम्मं ॥1 ॥ - अन्ववार्थ – [ जो ] ( पढमं जिणंद) प्रथम जिनेन्द्र (आइच्चवणं) आदित्य वर्ण (छक्कम्म दाया) षट्कर्म दाता (सिरि विस्सकम्मं ) श्री विश्वकर्मा (बम्भा य विहू सिव णाम जुत्तं) ब्रह्मा, विष्णु और शिव नाम युक्त हैं (तं) उन (आदिणाहं ) आदिनाथ को [ मैं ] (सम्म) सम्यक्तया (पणमामि ) प्रणाम करता हूँ । अर्थ - जो प्रथम जिनेन्द्र, आदित्य-वर्ण अर्थात् सूर्य के समान वर्ण वाले, षट्कर्म दाता श्री विश्वकर्मा, ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि नाम युक्त हैं उन आदिनाथ जिनेन्द्र को मैं सम्यक् रूप से प्रणाम करता हूँ। पुणेण पत्तं च चक्कं विचित्तं, अतुल्ल-विहवं तो वि विरत्तं । खणेण के वल्लविहूदि-पत्तं तं आदिपुत्तं भरहं णमामि ॥2 ॥ > अन्वयार्थ – [ जो ] (पुण्णेण) पुण्य से (चक्कंविचित्तं पत्तं) विचित्र चक्रवर्तित्व को प्राप्त हुए, (अतुल्लविहवं तो वि विरत्तं) अतुलनीय वैभव के धारक फिर भी विरक्त [तथा] (खणेण केवल्ल विहूदि पत्तं) क्षणमात्र में केवलज्ञानरूपी विभूति को प्राप्त हुए (तं) उन (आदिपुत्तं) आदिनाथ पुत्र (भरहं) भरत को [ मैं ] (णमामि) नमन करता हूँ। अर्थ- जो पुण्य से प्रथम विचित्र चक्रवर्तित्व को प्राप्त हुए, अतुलनीय वैभव धारक फिर भी विरक्त रहे तथा क्षणमात्र में केवलज्ञानरूपी विभूति को हुए प्राप्त उन महाराज आदिनाथ के पुत्र भगवान भरत को मैं नमन करता हूँ । चक्की विजेदा मयरद्धजो य, चक्कित्त- चत्तं सिवमग्ग- णेदा । उत्तुंगदेहो बरिसेग - तत्तो, बाहुबलिं तं पणमामि देवं ॥3 ॥ अन्वयार्थ – [ जो ] (मयरद्धजो) मकरध्वज अर्थात् कामदेव (चक्की विजेदा) चक्रवर्ती को जीतने वाले ( चक्कित्तचत्तं) चक्रवर्त्तित्व छोड़कर (सिवमग्गणेदा) मोक्षमार्ग 100 :: सुनील प्राकृत समग्र
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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