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________________ चंदगिरिं च इदिवुत्त सुणाण - सव्वं एगे हुतिंससद उण्णद - भाग वंदे ॥143 ॥ वे सन्मतिसागर गोम्मटेश प्रभु के पाद में नत हुए सिद्धान्त चक्रवर्ती नेमिचंद्र एवं चंद्रगिरि के सर्व वृत्तांत को जानते । यह चन्द्रीगरि 3100 फुट ऊंचा है, उस पर स्थित प्रतिमाओं तथा सिद्धात्माओं का वंदन करते हैं। 44 देसभूसण- मुणीसर- देस - देसं मण्णेज्ज साहु-हुकुमसिरि भागचंदो । सत्तेव छक्कय महाअहिसेग हेदु आगच्छिदूण तिहि - तिसय मज्म काले ॥44 ॥ यहाँ गणमान्य साहू शान्तिप्रसाद, सरसेठ हुकमचंद्र एवं श्रेष्ठी भागचंद्र जी सोनी सन् 1967 मार्च 30 के अभिषेक - महामस्तकाभिषेक हेतु आकर मानो आचार्य देशभूषण के आदेश को महत्व दे रहे हों । 45 साणंद-जाद अहिसिंच- विहिं च सव्वं लक्खाहिदादु जणमाणस सिंच-लाहं । पत्तेंति माणस मुणीसर - अज्जि - साहू सेट्ठी विपण जण - सड्ड गणा हु सव्वे ॥145 ॥ महामस्तकाभिषेक की सम्पूर्ण विधि तो आनंदित करती है। लाखों से अधिक जिनमानुष अभिषेक के लाभ को प्राप्त होते हैं। मानुष, मुनीश्वर, आर्यिका, साधु, श्रेष्ठी, प्रज्ञजन एवं सभी श्रद्धालु भी उसका लाभ प्राप्त करते हैं। 46 सत्तेवरंगि अहिसेग दिवाकरो वि कुव्वेदि तिक्खकरिएहि सुमाणुसंगे । णिद्दोस साहग गुणीण सुपत्तगाणं संघो चरेदि करकल्ल पडिं च जग्गी ॥46 ॥ दिवाकर अपनी दीप्त किरणों से सप्तरंगी अभिषेक करता है । अतः वही मानवों के साथ निर्दोष साधकों, गुणी जनों एवं उत्तम पात्रों के बीच अभिषेक के लिए तत्परं हुआ है। अभिषेक के बाद संघ कारकल के लिए विहार कर गया । सम्मदि सम्भवो :: 97
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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