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________________ वह ओम चन्द्र की तरह कान्त झूले में झूलता हुआ छहमास का सबका प्रिय बालक था। वह एक दूसरे के हाथों में क्रीड़ा करने वाला था । तभी इसका डेढ़ वर्षीय भाई मृत्यु श्री को प्राप्त हो जाता है । 18 जो आगो इध भवे अणुगच्छिदो सो ो सासदो परम इट्ठ पियो हु बालो । संजोग पच्छ स वियोग लहुत्त काले दाएज्ज गच्छदि कुधो ण हु जाणदे को ॥18॥ जो आया इस संसार में वह जाता है, परम इष्ट प्रिय बालक भी शाश्वत नहीं । संयोग के पश्चात् अल्प समय में वियोग दे जाता है, कहाँ जाता यह कोई नहीं जानता हैं । 19 सुज्जे गदे पउम मंडल सोग जुत्ता सव्वे जणा वि जणणी जयमाल मुत्ता। जोगं च पच्छ्यविजोग जुदा हवेदि ओमो वि अस्सु-गद मादु पपस्स भूदो ॥19॥ जैसे सूर्य के अस्त होने पर पद्म मंडल शोक युक्त हो जाता है वैसे ही पुरवाल जन, माता जयमाला की मुक्ता संयोग के पश्चात वियोग को प्राप्त हो जाती है। ओम अश्रुगत माता को देख रहा था । वियोगे वि चिंतणं 20 णिक्कंटगो दु मिदुहास विहीण जादो अप्पाविसुद्ध परिणाम मुणंत माणो । अरोग्ग देह गिह जोव्वण वेहवादी थुत्थि वाहण सुहं सुरचाव तुल्लो ॥20 ॥ मृदुहास विहीन यह निष्कंटक आत्म विशुद्ध परिणाम की ओर अग्रसर आरोग्य, देह, गृह, यौवन, वैभवादि, वस्तु एवं सुख के वाहन सभी सुरचाप की तरह ( इन्द्रधनुष की तरह) हैं। सम्मदि सम्भवो :: 59
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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