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________________ प्रभातकाल में दीप्तेश की दीप्त किरणों से सुप्त कमल खिल जाते हैं, नीर धवलालय उच्चभूद तरंगित होने लगता है तथा लोग अज्ञान रूपी निद्रा से जागृत हो जाते हैं। ऐसे ही तपस्वी मानुष तपस्वी सम्राट से तप्त होने लगते हैं तथा जागृत होने लगते हैं। कालोत्थि वट्टण-सुलक्खणमेत्त-कालो सो एव एगग-पदेसि-असंखिऊणं। पारट्टएज्जदि अणंत-पदत्थ-संगी अप्पाण अप्प-गुणपज्जय-संग सो हु॥4॥ वर्तना काल का लक्षण है वह एक प्रदेशी असंख्यात होकर अनंत पदार्थों के परिणमन में सहकारी होता है। अपने अपने गुण-पर्याय स्वयं परिणमन होते हैं, पर उनमें वह सहकारी होता है। अस्थि त्थि अत्थिगद-काय बहुप्पदेसी जीवो त्थि पोग्गलय-धम्म-अधम्म-रूवो। आगास-अस्थि ण हु काल इगे पदेसी ओसप्पिणी वि अवसप्पिणि-काल भेदा ॥5॥ जो अस्ति रूप हैं वह अस्तिकाय है वह बहुप्रदेशी है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये अस्तिकाय हैं और काल एक प्रदेशी है। वह उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी रूप भी है। सुहुस्समादि-कमदो दुह-सोक्ख-रूवे छक्केव सुक्ककिसिणो दुव-पक्ख-पक्खे। जंबू सुदीव दिग देस दिगंत-भासे अस्सिं च रम्म भरहो परमो हु खेत्तो॥6॥ सु-सुख-अच्छा, दु-दुह-दुक्ख आदि क्रमशः छह छह भेद वाले हैं। वे कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष रूप हैं। इसी क्रम में जंबूदीप देश देशान्तर में शोभायमान है। इसी में रम्य भरत क्षेत्र भी अति उत्तम क्षेत्र है। एसो विसाल-रमणिज्ज-सुखेत्त-खेत्तो बाहुल्ल-धण्ण-धण-वेहव-खण्ण-खेत्तो। 44 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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