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________________ 86 आगम-सुत्त समासित्ता, पउमालयकेलकी। केका तडाग-कल्लोली, पउमाणं पफुल्लदे॥86॥ यह आगम-सूत्रों से समाहित पद्मालय की केलकी (सरस्वती) है। यह केका है, यह तडाग की कल्लोली और जो पद्मों को प्रफुल्लित करती है। 87 अरुणाभ-भस्सरो णिच्चं, पफुल्लएंति पोम्मगं। किरणेहिं दित्त-कुव्वंता, तावससम्म तावसी॥87।। यह उदित अरुणाभ भास्कर जहाँ पद्म प्रफुल्लित करता है वहीं किरणों से दीप्त करता हुआ अपनी ताप से सम्यक् तपस्वी भी बनाता है। 88 दिव्व-तेजंसु-तत्तत्तो, तत्ताणं तच्च देसदि। णं सव्वत्थ भवे हिंडे, पस्सेदि तावसाण तं ॥88॥ दिव्य-तेजांसु ताप से तप्त तपस्वियों को तत्व का दर्शन कराता है। वह लोक में सर्वत्र घूमता है और संसार में तापसों को देखता है। 89 मं राहू दिव्व-तेजसु, गसेदि अच्छएदि सो। अणूठा तवसी जोगी, दिप्यमाणो हु दिप्पदे॥89॥ मुझ तेजांसु को राहू ग्रसित एवं आच्छादित कर लेता है। पर यह अनूठा तपस्वी योगी दीप्त होता हुआ दीप्त रहता है। १० रागद्दोसा-य मोहादी, मिच्छवारण-वारिदुं। कुणेदि ताव-बाहुल्लं, बाहिरा अप्प-सोहणं ॥१०॥ राग-द्वेष एवं मोहादि रूप मिथ्यात्व वारण (अवरोध) आवरण के रोकने के लिए बहिरात्म से अन्तरात्म शोधन के लिए ताप की अधिकता (अतिताप) करते हैं। 91 चिर-काल-तवं-तत्तं, जोगिं सुवण्ण-देहए। पत्तेदि सम्मदिं सम्म, झाणग्गीओ हु कम्मगं 191 चिरकाल तक योगी तप करते हुए सुवर्ण देह को प्राप्त करता है। वही कर्म ध्यान रूपी अग्नि से समन करता है और उत्तम बोधी को प्राप्त होता है। 38 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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