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________________ सो पारसोल-णयरे दहलक्खणं च सत्तं च कुंभ-वद-जुत्त-पताप-गड्डे। अट्ठण्हिगं च दसलक्खण-एग-अंतं भूसेज्ज सो उदय-वासयसाग इंदू॥6॥ आचार्य श्री पारसोला (1985) में दशलक्षण, प्रतापगढ़ (1986) में सप्तकुंभ, उदयपुर, बांसवाडा सागवाडा, एवं इन्दौर 1987, 1988, 1989, 90 में तीनों अष्टाह्निका तथा एगान्तर एवं दशलक्षण व्रत का पालन करते हैं। सो रामगंज-मदणे पुर-णंद-कालु पालेज्ज सो जयपुरे तव-वड्डमाणं। दिल्लीइ एग-दुव-ते चउवास-जुत्तो वादे फिरोज-गढ टीकम-एत्थ-सव्वं ॥7॥ आचार्य श्री रामगंजमंडी (1991) मदनगंज एवं आनंदपुर (1992, 93) में तीनों अष्ठाहिन्का एवं एकान्तर तप, दशलक्षण व्रत पालते हैं। वे जयपुर (1994) में वर्धमान तप, दिल्ली (1995) में 1, 2, 3, 4 उपवास पूर्वक पारणा करते हैं। फिरोजाबाद (1996) और टीकमगढ़ (1997) में 1, 2, 3, 4 उपवास पूर्वक पारणा का क्रम रखते हैं। चंपापुरे अवि वणारस-छत्तरम्हि एगंतरादि-वद-भट्ठ-दहं वदं च। वासं चढुंच बडवाणि-पुरं च पच्छा एगंतरादि णरंवालिपुरम्हि सूरी॥8॥ आचार्य श्री चंपापुर (1998) बनारस (1999) और छतरपुर में 2000 में दशलक्षण, अष्टाह्निका एवं एकान्तर तप करते हैं। चार उपवासपूर्वक पारणा बडवानी में (2001) नरवाली (2002) में दशलक्षण, अष्टांहिका एवं एकान्तर तप में लीन होते हैं। तक्कं जलं णयदि सो उदए खमेरे मुम्बेइ-लासुरण-ऊदयऊद गामे। एच्चल्ल-कोल्हपुर-तक्क जलं णएज्जा संतो पसंत-मुणिधीस-तविंद सूरी ॥१॥ सम्मदि सम्भवो :: 267
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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