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________________ गणी परमार्थी संतों को सन्तान की तरह देखने वाले एकान्तर तपी पुर, नगर एवं ग्राम आदि को अपनी देशना से परम शान्त बना रहे हैं। 66 गुरुवर-किस-कायी देह-दुक्खादु मुत्तो पग-पग-अणुचारी पंथ-तंती ण सूरी। सुद-सरि-सरि-णंदी आगमाणं च सुत्ती रदण-रदण-धारी, सव्व-दित्ती-पगासी॥66॥ गुरुवर आचार्य सन्मतिसागर कृष कायी देह दुःख की चिन्ता रहित पग पग से आगे बढ़ते हैं। वे पंथतंत्री आचार्य नहीं, अपितु आगमों के सूत्री, श्रुत रूपी सरिता में निमग्र आनंदित रहते हैं। वे रत्नाकर के रत्न, रत्नत्रयधारी हैं। वे सर्व दीप्ति युक्त सर्वत्र प्रकाश ही फैलाते हैं। 67 दिव-दिवस-पसंती दिव्व-दिव्वो ह सूरी गुरुवर गुरु संती आदि सूरिंद-सूरी। गुण-गण तुह दंसी णाण चारित्त मग्गी रदण-तय विहाणं देयमाणो गणिंदो॥7॥ जिस तरह दिवस में दिव्य तेज युक्त सूर्य दीप्त रहता है वैसे ही आप प्रतिदिवस (रात दिन) शान्ति के गौरव आचार्य आदिसागर की दिव्य महिमा युक्त सूर्य तो हैं ही साथ ही रत्नत्रय दर्शन, ज्ञान और चरित्र के मार्गदर्शी हैं, इन्हें देते हुए अपने गण (संघ) के गणीन्द्र हैं। 68 तुझं णमोत्थु मुणिराय! सुदाण रत्ती तुझं णमोत्थु जगजोदि-गुरूण सूरी। तुझं णमोत्थु उदयाचल सुज्ज-दित्तं तुझं णमोत्थु परमागम-सुत्त-सुत्तिं ॥68॥ श्रुतप्रेमी मुनिराज तुम्हें नमन हो, जगत ज्योति गुरुवर तुम्हें नमन हो, उदयाचल पर दीप्तिमान सूर्यसम तुम्हें नमन हो और परमागम सूत्रों के भंडार तुम्हें नमन हो। ॥ इदि तेरह सम्मदि समत्तो॥ सम्मदि सम्भवो :: 253
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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