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________________ अस्थि त्ति दुविहं झाणं, सुद्धं च असुहं तहा। अट्ट-रुद्द-भवाकारी, धम्म-सुक्क-सुहागरो॥7॥ ध्यान दो प्रकार का है, शुद्ध ध्यान व अशुद्ध ध्यान। अशुद्ध आर्त-रौद्रध्यान संसार बढ़ाने वाले तथा धर्म-शुक्लध्यान सुख की खान है। चित्त-थिर-ठिदि जा वि, चंचलाणुपिहो चिदो। साणुपेहा वि चिन्ता वि, भावणा चित्तमेव हु॥8॥ चित्त की जो भी स्थिर स्थिति है वह ध्यान चंचला रहित चिद्रूप है। वह अनुप्रेक्षा, चिन्ता, भावना एवं चित्त भी है। जोगासवस्स सुणिरोहण-झाण-होज्जा बुद्धीबलादु अणुवित्ति-सुणाणिणा वि। जाहेद्रुझाण-हवएज्जदि अण्ण-झाणं होज्जेदि चिन्त-सुदझाणि सदा मुणेज्जा ॥१॥ योग बल से आस्रव का निरोध भी ध्यान है। जिसकी वृत्ति अपने बुद्धिबल के अधीन होती है, उसे ज्ञानियों के द्वारा यथार्थ ध्यान कहा गया है। अन्य अपध्यान है। ऐसा सदैव चिन्तन करें और श्रुतानुसार ध्यान को समझें। 10 पज्जाय-णाण-थिर भूद पदस्थ झाणं अप्पप्पदेस अणुणाण-थिरं च झाणं। पद्देस-दसण-सुहं बल-रूव-झाणं एगत्त रूव ववहार सुझेय जाणे॥10॥ ध्यान ज्ञान का ही पर्याय है। जो स्थिर भूत पदार्थ का ध्यान करता है। आत्म प्रदेश रूप ज्ञान स्थिर ध्यान है। इस आत्म प्रदेश में दर्शन, सुख और बल रूप ध्यान है। एकत्व रूप में ध्यान ध्येय हो जाता है। 11 जोगो सुझाण-समही समही हु रोहो धीचंचलत्त-अणुरोह-मणं णियप्पं। भासेज्जदे हु परिणाम पदत्थझाणं अप्पाण जं च परिणाम विचिन्त झाणं॥11॥ 198 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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