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________________ सारंग रूपक ऽऽ।ऽऽ।ऽऽ।ऽऽ। आगार-संसार-संभेद-उक्किट्ठ सिद्धंत-सत्तम्हि णिम्मग्ग-सद्रि। जो ताव-वीसाम-संजुत्त-जोएहि णो मुण्णदे किं भवे इह भावेहि॥3॥ आगार है-चारों ओर गारा ही गारा-कीचड़ ही कीचड़ संसार में है। इसे भलीभांति नष्ट करेंगे। इसलिए वे सिद्धान्त सूत्र में दृष्टिपूर्वक सदृष्टि पूर्वक निमग्न रहते हैं। ये विश्राम के तप एवं योग से युक्त रहते। इस संसार में क्या हो रहा, इस पर विचार नहीं करते, अपितु इष्ट भाव-विशुद्ध आत्मभावों में लीन रहते हैं। आसाढ सुक्क इगये हु फिरोज-वादे सो चाउमास-उदघोसण कुव्व-सूरी। सा जम्म-भूमि-महवीर-सुकित्ति कित्ती जत्थेव णत्थि जल तत्थ पपूर-कूवे॥ आचार्य श्री के आषाढ़ शुक्ला की एकम को प्रवेश के पश्चात् फिरोजाबाद में जहाँ कूप में पानी नहीं था, वहाँ प्रवेश करते ही कूप जल युक्त हो गये। सो ठीक है चातुर्मास की घोषणा तो थी ही, पर यह जन्म भूमि महावीरकीर्ति की कीर्ति भी थी। 5 छिण्णाणवे कलस-ठावण-सत्तवीसे जुल्लाइ सम्मविहि पुव्वसुजोइ-जोगे अज्जी हुदंसणमदी दुह वास-जुत्ता पज्जूसणे मणुज-साविग-साविगाओ॥5॥ सन् 1996 में 27 जुलाई को योगीन्द्रसागर-बालाचार्य के योग से कलश स्थापना हुई वास-उपवास हुए। श्रावक-श्राविकाएँ भी तप आदि करती हैं। आर्यिका दर्शनमति पर्युषण में दश उपवास करती है। बाहुबलिं जिणपुरस्स सुचंदवारं दंसेज्ज सम्म-मुद-भावण-मंगलं च। 156 :: सम्मदि सम्भवो
SR No.032392
Book TitleSammadi Sambhavo
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2018
Total Pages280
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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